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Monday, July 30, 2007

'आह' के लिये नहीं बारात लेकर आए थे राजकपूर

'आह' फिल्म में तांगे की सवारी कर सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता स्व. राजकपूर को सतना से रीवा जाते बहुत लोगों ने देखा होगा पर यह जानने वाले कम लोग ही होंगे कि राजकपूर आह फिल्म के लिये कभी सतना आए ही नहीं . वे आए जरूर थे लेकिन शूटिंग के लिये नहीं बल्कि अपनी शादी में बारात लेकर. इसका गवाह स्वयं वह तांगे वाला मधुसूदन लोनिया है जिसने 69 साल पहले उन्हें सतना से रीवा तक पहुंचाया था.
राजकपूर को तांगे में बैठाकर ले जाने वाले ९७ वर्षीय मधुसूजन तब की (सन् 1938) की बातें याद करके रोमांचित हो उठते हैं. वे बताते हैं कि उस दिन सतना रेलवे स्टेशन में काफी रंगीनियत थी. हर तांगे वाले की निगाहें स्टेशन की ओर लगीं थी . जैसे ही भाप का गुबार छोड़ते हुए ट्रेन रुकी और उससे मशहूर फिल्मी हस्तियां उतरीं तो हर तांगे वाला उन्हें अपने तांगें में बैठाने को लालायित था. मधुसूदन ने बताया कि यह मेरा सौभाग्य ही रहा कि राजकपूर थोड़ी देर खड़े रहने के बाद सीधे मेरे तांगे तक आए .वहीं से उन्होंने वैजयंतीमाला और जीवन को भी अपने पास बुला लिया.
अचानक पहलू बदलते हुए मधुसूदन ने बताया कि पहले तो तांगे ही आवागमन का सहारा थे . हर दिशा में हर दूरी के लिये तांगें ही साधन थे लेकिन अब तो भूखों मरने की नौबत आ गई है. फिर उसने तुरंत कहा उस दिन सुबह के 8 बजे के लगभग ट्रेन पहुंची थी. उसमें से उतरने वाली मशहूर हस्तियों में राजकपूर सहित वैजयंतीमाला, दिलीप कुमार, ओम प्रकाश, जीवन, कुक्कू, सुरैया को मिला कर कुल 25 से 30 लोग रहे. सभी के सामान तांगों में रखने के बाद बिना देर किये पूरा काफिला रीवा की ओर चल पड़ा. रास्ते भर बाराती चुहलबाजी के साथ फिल्मी दुनिया की बाते सुन का रोमांचित होता मधुसूदन 12 बजे के लगभग 52 किलोमीटर की दूरी तय करके सतना रीवा पहुंचा . उसकी माने तो उस दिन रीवा के उपरहटी में उत्सव का माहौल था और मछरिया दरवाजा के पास बारात रुकी थी. किसके यहां यह तो वह नहीं बता पाया लेकिन यह जरूर कहा कि किसी पुलिस अफसर के यहां थी शादी. उत्साह के साथ उसने यह जरूर बताया कि किराए के 4 रुपये 50 पैसे होते थे लेकिन राजकपूर जी ने 10 रुपए दिये थे. मधुसूदन ने वह तांगा आज भी संभाल कर रखा हुआ है.

Wednesday, July 25, 2007

मीडिया और रामू का गधा

रामू धोबी का एक गधा था. कमजोर था सो उससे भार ढोया न होता था. दिनभर रेंकता रहता था. एक दिन उसका रेंकना कुछ अजीब सा हुआ सो लोगों ने कहा यह अंग्रेजी में रेंक रहा है. फिर क्या था बात फैली और मीडिया को भी खबर लगी. तभी किसी ने कहा लगता है कॉलेज वाले शर्मा जी मरे हैं उन्ही की आत्मा आ गई है क्योंकि वही दिनभर अंग्रेजी में गिटरपिटर करते थे.
बस आव देखा न ताव एक मीडिया वाले ने गधे सहित रामू को बैठा लिया स्टूडियो में .कुछ देर बाद गधा व मीडिया एक्सपर्ट भी आन लाइन जुड़ गए.
एंकर ने कहा देखिय यह गधा है और विशुद्ध तौर पर गधा है. ये तो इसकी किसी पीढ़ी ने स्कूल का मुंह नहीं देखा. इसके और इसके मालिक के भी बाप दादा नहीं जानते कि अंग्रेजी क्या है. लेकिन यह अंग्रेजी में रेंक रहा है. इ सके मोहल्ले वालों की माने तो यह आज से पहले ऐसे कभी नहीं रेंका. हमारे साथ एक दर्शक जुड़ रहे हैं कलुआप्रसाद . आइए देखते हैं क्या कहते हैं कलुआ जी.
एंकरः हां कलुआ जी क्या कहना चाहते हैं आप.
कलुआः वो क्या है कि इस गधे के बारे में देखने पर तो नहीं लगता हे कि ये अंग्रेजी बोलता होगा लेकिन
एंकरः हमारे पास समय कम है
कलुआः आप कह रहे हैंतो मान लेते हैं . इससे पूछिये जरा कि अपने बाप का नाम अंग्रेजी में बोल लेता है.
एंकर - हम आप से बाद में बात करेंगे और आप को बता देना चाहते हैं कि यह गधा अंग्रेजी में ही बोल रहा है और इतनी कठिन अंग्रेजी बोल रहा है कि न हमें समझ में आ रही है और न आपको लेकिन यह अंग्रेजी बोल रहा है.
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तभी रामू और उसका गधा दूसरे चैनल पर दूसरे दिन दिखा . वहां बताया जा रहा था यह जो आप देक रहे हैं यह गधा ही है यह रेंकता नहीं है . हमने इससे भार उठवा कर भी देखा लेकिन इसने उफ तक नहीं की जिससे साबित होता है कि यह गधा है इसमें कोई शक्ति नहीं है यह अन्य गधों की तरह ही रेंकता हैं
तभी गधे ने रेंक दिया और एंकर चिल्लाने लगा...
देखिये यह एक्सक्लूसिव सिर्फ हमारे पास है कि गधा रेंक रहा है और अंग्रेजी में नहीं रेंक रहा है. ... ... ...



इधर दर्शक सोच में है कि मीडिया को गधे से सरोकार है लेकिन जनहित व उसकी समस्याओं से नहीं . यही है मीडिया की हकीकत .

मीडिया का बाजार


आज चारों ओर पत्रकारिता पर बहस हो रही है लेकिन मेरी नजर में बहस बाजार पर होनी चाहिये . आज पत्रकारिता एक बाजार बन गई है या कह सकते हैं बाजार पत्रकारिता में प्रतिबिंबित होने लगा है. चाहे न्यूज चैनल हों या फिर प्रिंट मीडिया सभी बाजार से संचालित हो रहे हैं. सभी बाजार का एक हिस्सा बन गए है. मांग और पूर्ति का नियम यहां भी लागू है. जो बिक रहा होता है दुकानदार उसे ही अपने शोकेस में स्थान देता है ठीक यही स्थितियां मीडिया के सामने हैं . टीआरपी और सर्कुलेशन की लड़ाई में कई बार पत्रकारिता के मानदंड तारतार हो रहे है.
कुछ दिनों पहले दिलीप मंडल जी ने कहा है कि अगर नंदीग्राम में टीवी कैमरा नहीं होता, तो सीपीएम को शायद इतनी शर्म न आ रही होती।मैं भी उनकी बात से सहमत हूं लेकिन कितनी बार यही कैमरा आमजनमानस के साथ पत्रकारिता को भी शर्मशार करता है. कुछ दिन पहले ही एक युवती का नग्न होकर सड़क पर निकल पड़ना और उसका बार-बार न्यूज चैनलों में प्रदर्शन क्या साबित करता है. उसकी आवाज उठाएं यह गलत नहीं है लेकिन नग्नता का प्रदर्शन उचित है क्या? यदि यह प्रश्न उठाया जाये तो लोग कहेंगे कि मीडिया उसकी आवाज उठा रहा था लेकिन मीडिया आवाज के परिप्रेक्ष्य में एक सनसनाहट दिखाकर कुछ और बढ़ा रहा था.
आज की सुर्खियां रेप की घटनाएं बनती है. ऐसा कोई दिन नहीं जिस दिन इन घटनाओं को चासनी में डालकर पेश न किया जाता हो. खोजी पत्रकारिता के नाम पर रेप, भूत-प्रेत, सेक्स और कुछ इस जैसा ही दिखाया जा रहा है. दरअसल सनसनी के चक्कर में जो मिल रहा है उसे ही रंग कर प्रस्तुत करने के आदी होते जा रहे पत्रकार स्वयं पत्रकारिता भूल रहे हैं.
रही बात खोजपरक खबरों की तो यदि वो कारपोरेट जगत की हुई तो उसपर हाई लेबल पर ही सौदे हो जाते है या फिर यदि प्रशानिक स्तर की कोई बड़ी खबर हुई तो वह बेहतर संबंधों के नाम पर तो कई बार पैसों से मैनेज हो जाती है. तो ऐसे में सिर्फ रह जाती है घटना प्रधान खबरें. तो फिर शुरू हो जाती है चासनी लगा कर प्रस्तुतिकरण.
फिर चाहे वह भूतं शरणं गच्छामि हो या फिर सास बहू के झगड़े. कुछ न मिला तो बिपाशा और जॉन का झगड़ा तो मिल ही जाएगा.
आज न तो शिक्षा के मामले में कुछ बोला जा रहा न ही लिखा जा रहा न ही स्वास्थ्य के बारे में . और भी खबरे हैं जो जनहित से सरोकार रखती हैं लेकिन उन्हें कोई स्थान नहीं है. क्योंकि उनसे सर्कुलेशन या टीआरपी नहीं बढ़नी.
दूसरी ओर एक पुलिस वाले की सड़क दुर्घटना में मौत होती है तो वह बड़ी खबर बनती है लेकिन यदि कोई गरीब कुचल जाता है तो छोटा सा स्थान या फिर संक्षिप्त में सिमट जाता है. जहां जिंदगी के ऐसे दोहरे मापदंड हो तो स्वयं ही समझा जा सकता है कि पत्रकारिता की स्थिति क्या है.
हालांकि यह लंबी बहस का मुद्दा है क्योंकि आज पत्रकारिता और बाजार एक दूसरे के पूरक हो गए हैं और बिना एक दूसरे के चल भी नहीं सकते .

Friday, July 20, 2007

और वह ईसाई हो गया

उसके पास इतना भी नहीं था कि वह अपने बच्चे को दो जून की रोटी और पहनने को कपड़े दे सके. रोजगार की तलाश में पलायन की नौबत आ गई थी. तभी एक दूत उस तक पहुंचा और उसके सारे कष्ट हर दिए
.... और वह ईसाई हो गया.
सतना में मिशनरी कार्यकर्ताओं पर हमले के बाद सबकी निगाहें धर्मान्तरण की ओर गईं. सो हम भी पहुंचे माजरा समझने. काफी खोज बीन के बाद पता चला की ये मिशनरी कार्यकर्ता कुछ दिन पहले एक हरिजन बस्ती में गए थे . वहां के खालिस गरीबों को जाकर खाने पीने का सामान देते. फिर कपड़ो की व्यवस्था की. उनके लड़कों को पढ़ाना भी शुरू कर दिया. धीरे - धीरे वे लड़के और उनका परिवार मिशनरियों के आश्रम आना शुरू कर दिया. बातो ही बातों में उन्हें अपनी प्रार्थना में भी शामिल करने लगे और एक दिन पाठ पढ़ाया कि देखों इस देवता को इसी के आदेश से हमें तुम्हारा पता चला और इसी की इच्छा थी कि तुम्हारी मदद हम करें. जब यह ईश्वर तुम्हारा इतना ख्याल रखता है तो तुम क्यों नहीं इसके अनुयायी बन जाते हो? बस फिर क्या था इन गरीबों को क्या चाहिये दो जून की रोटी व कपड़े फिर इनका भगवान कोई भी ... और फिर उसने ईसा का धर्म अपना लिया.
यह तो था मामला धर्मान्तरण का लेकिन इसके पीछे के तथ्य अभी भी विचारणीय है-
1. क्या वह गरीब न होता तो दूसरा धर्म अपनाता.
2. क्या उसके अपने धर्म व समाज वाले मदद नहीं कर सकते थे.
3. सरकारी योजनाएं(सतना में रोजगार गारंटी योजना चलरही है) होने के बाद भी पलायन की स्थिति क्यों बन रही है.
4. आज जो हिन्दू संगठन धर्म बदल लेने पर चिल्ला रहे हैं क्या उन्होंने पहले इस गरीब की ओर ध्यान दिया.
5. अपने व अपने परिवार को सुखमय जीवन जीने के अवसर प्रदान करने के लिये धर्म बदलना गुनाह है?
इसके अलावा भी कई प्रश्न हैं लेकिन उत्तर तो हम सबको ढूढ़ना पड़ेगा. नहीं तो हर दिन कोई अपना धर्म बदलेगा और इन स्थितियों में धर्म बदलना मेरी नजर में गुनाह नहीं है. क्योंकि मिशनरियों की तरह किसी भी हिन्दू संगठन में मदद का यह जज्बा नहीं है. हां यह जरूर है कि साल के किसी एक दिन किसी गरीब को कंबल या सेव फल बांट देते हैं ओर दूसरे दिन विज्ञप्तियों के माध्यम से हर अखबार में छप कर लोगों के सामने आ जाता है जिसे साल भर गाया जाता है. ..

Thursday, July 19, 2007

मिशनरी कार्यकर्ताओं पर हमला या न्युटन का 3rd लॉ

एक पखवाड़े के अन्दर रीवा संभाग में दूसरी बार सतना शहर में दर्जन भर नकाबपोशों ने चार मिशनरी कार्यकर्ताओं की लाठी डंडों से जमकर पिटाई की. दस मिनट तक हुई मारपीट के बाद वे घटनास्थल से भाग गए. घटना के कारणों का खुलासा नहीं हो सका है और न ही मिशनरी कार्यकर्ता भी कुछ बता रहे है. इसके पूर्व रीवा शहर में भी एक चर्च पर हमला कर कुछ मिशनरियों को घायल कर दिया गया था.
मिशनरी कार्यकर्ताओं पर हुए हमले का पुरजोर विरोध होने लगा है. हर पार्टी अपना अपना बयान देकर हमदर्द बनना चाह रही है. कुछ इसे भगवा दलों का हमला कह रहे हैं तो कुछ इसे सीधे तौर पर बजरंग दल का कृत्य बता रहे हैं. बहरहाल दोषी जो भी हो यह तो पुलिस जांच में सामने आएगा?
लेकिन एक तथ्य और है जो कइयों के जेहन में कौंध रहा है कि हमला क्यों हुआ. जहां तक कहा जाता है हर घटना के पीछे कुछ न कुछ कारण होता है लेकिन यहां कारण को छोड़ कर सबकुछ मौजूद है.
यदि हमलावर लुटेरे थे तो घटनास्थल की एक-एक चीज सलामत है. यदि हमलावर रौब जताना चाहते थे तो वे चुपचाप आए और मारपीट कर सीधे चले गए मौहल्ले से कोई मतलब नहीं था. मिशनरियों के अनुसार उनका कभी किसी से कोई विवाद नहीं हुआ जिसका वे बदला लेने आए थे .... फिर आखिर क्या था जो घटना का कारण बना.
क्या यहां न्युटन का तीसरा नियम गलत हो जाएगा कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है तो यह किस क्रिया की प्रतिक्रिया थी? यह न तो घायल बता रहे न कोई और, लेकिन घायलों की खामोशी में ही कई राज हैं जो कह रहे हैं कि न्युटन गलत नहीं हो सकता.
कहीं यह सेवाभाव की आड़ में धर्मपरिवर्तन का कोई विरोध तो नहीं था. क्योंकि यहां लगातार कई दिनों से ऐसे मामले सुनने को आ रहे हैं.
हालांकि घटना शर्मनाक थी लेकिन यदि यह धर्मान्तरण का प्रतिकार है तो प्रशासन को भी आंखे खोलनी होंगी. हमलावरों को सजा मिले ऐसे प्रयास तो हों साथ ही यह भी किया जाय कि सेवा की आड़ में कोई गरीब अपना धर्म न बदले.

Friday, July 6, 2007

और ये चैनल के (नंगे) रिपोर्टर

आप अपराधी हैं क्योंकि आप अपना परिवार पालने के लिये अपना स्वयं का व्यवसाय करते हैं और व्यवसाय करने के एवज में चैनल के रिपोर्टरों को पैसा नहीं देते. जी हां यह बिल्कुल सच है सतना शहर में. विगत दिवस पत्रकारों ने छापामार कार्रवाई की तर्ज पर खुद अन्वेषक बन कर जो नंगा नाच (मैं यही कहूंगा) किया वह पत्रकारिता व उन सभी चैनलों व अखबारों के लिये शर्मनाक है जिसके रिपोर्टर वहां शामिल थे.
इस घटना की शुरुआत एक सप्ताह पूर्व से हो गई थी. किसी व्यक्ति ने जी चैनल के नाम से एक चिकित्सक से कुछ रुपये डरा धमका कर ले आए. वजह यह बताई गई कि तुम दूसरे जिले से आकर यहां इलाज कर रहे हो जो कि गलत है. मीडिया की धौंस और वह साधारण सा बीएएमएस चिकित्सक. मारे भय के उसने कुछ रकम उसे दे दी. फिर यह बात सतना के ND टीवी व सहारा के रिपोर्टरों को पता चली. फिर क्या था पहुंच गए अपनी सेटिंग करने. बात बनी नहीं और दूसरे दिन के टाल दी गई . फिर बूधवार को एक बार फिर अंतिम प्रयास सेटिंग का किया गया. लेकिन चिकित्सक ने फिर पैसे देने से इन्कार कर दिया. तब जागरुक चैनल एनडीटीवी व सहारा के जागरुक पत्रकारों ने यहां के सभी चैनलों के संवाददाताओं व अखबारनवीसों को न्यौता देकर डॉक्टर के क्लीनिक में बुला लिया. फिर वहां पत्रकारों की फौज (संख्या व तरीके के अनुसार) पहुंची. फिर चिकित्सक पर प्रश्नों की बौछारें या कहें गाली गलौज का वह तांडव हुआ कि पत्रकारिता तार तार हुई. रिपोर्टर खुद पार्टी बन गए. खुद ही गाली गलौज व मारपीट की स्थितियों तक पहुंच गए. पैसे न पाने की नाराजगी का आतंक इस कदर रहा कि चिकित्सक घबराहट में अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर पा रहा था. या कहें स्पष्ट करने नहीं दिया जा रहा था. फिर पुलिस व प्रशासन के अमले को भी न्योता दिया गया. इसी दौरान चिकित्सक द्वारा क्लीनिक में रखी महंगी दवाओं को इन पत्रकारों ने चोरी से अपने कपड़ों के अंदर व जेबों में भी डाला(यह पराकाष्ठा थी). फिर सभी ने संतुष्टि के भाव से विदा ली और कहा आज शानदार स्टोरी बन गई.
सवाल यह उठता है कि यदि वह चिकित्सक गलत था तो नियमन कार्रवाई करवाई जा सकती थी या अपने पत्रकारिता के तरीकों से स्टोरी बनाई जा सकती थी. दूसरी ओर शहर में कई फर्जी चिकित्सक हैं उनपर नजर क्यों नहीं जाती ....
इसके अलाबा भी इस स्टोरी के बाद कई सवाल उठ रहे है जिनका जवाब शायद मैं नहीं दे पा रहा हूं. हां यह जरूर पता चला है कि दूसरे दिन पुलिस को उक्त चिकित्सक ने अपने प्रमाण-पत्र जरूर दिखाएं हैं .

Monday, July 2, 2007

कानून से उपर हैं विधायक पुत्र

कानून सिर्फ जमीन पर रेंगने वाले आम आदमियों के लिए होता है . मसलन ट्रैफिक के नियम आम आदमी तोड़ता है, अपराध आम आदमी करता है बलात्कार आम आदमी करता है और न जाने जितनी भी बुराइयां है वह सब आम आदमी ही करता है. लेकिन यदि कोई विधायक या सांसद का पुत्र या रिश्तेदार है तो उसपर नियम कानून लागू नहीं होते. ... ऐसा ही कुछ देखने को मिला सतना जिले में.
विगत दिवस शहर के एक चौराहे में यातायात पुलिस की चेकिंग चल रही थी . इसी दौरान बगैर नम्बर की बाइक पर तीन सवार पुलिस द्वारा धर लिये गए. कागजात मांगे जाने पर जब उपलब्ध नहीं कराए जा सके तो चालान की कार्रवाई प्रारंभ की जाने लगी तभी उनमें से एक ने कहा कि जानते नहीं मैं विधायक शंकरलाल तिवारी का पुत्र हूं. लेकिन नादान पुलिस कर्मी ... बोला... तो क्या हुआ नियम नियम होता है और चालान काट दिया. तभी पुत्र ने अपने विधायक पिता को यह जानकारी और पन्द्रह मिनट बाद विधायक शंकरलाल तिवारी अपने दलबल सहित वहां पहुंच गए. आते ही यातायात कर्मियों पर बरस पड़े साथ ही सिपाही के निलंबन की मांग को लेकर धरने पर बैठ गए.
मध्यप्रदेश में भाजपा का शासन और भाजपा विधायक ही अपने समर्थकों सहित धरने पर बैठे तो हड़कंप मचना स्वभाविक था. आनन फानन में सिटी मजिस्ट्रेट पहुंचे. लेकिन विधायक ने लगभग गाली देने वाले अंदाज में बात की और एसपी व कलेक्टर को मौके पर आने की मांग की . एसपी शहर से बाहर थे तो कलेक्टर को बुलाया गया लेकिन कलेक्टर इस घटना से नाराज आने से मना कर दिया. फिर राजनीति की बिसात उपर से बिछी और कलेक्टर आए और सिर्फ इतना ही कहा ‘आप जाएं जो दोषी होगा उस पर कार्रवाई होगा’ और लगभग शाम 8 बजे से 11 बजे तक चली नौटंकी का अंत हुआ. लेकिन कुछ प्रश्न छूट गए जिसके जवाब हम आपको देने है. यहां यह बताना भी जरूरी है कि यह विधायक भाजपा झुग्गी झोपड़ी प्रकोष्ठ का प्रदेशाध्यक्ष भी है मतलब संगठन से जुड़ा आदमी भी है. ऐसे में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की यह बात कि सरकार ईमानदारी से अपना काम करेगी पर का तो स्याह पन्ना है. सबसे बडी बात पूरे प्रदेश में कानून व्यवस्था की दुहाई देते घूमने वाले गृहमंत्री का यह गृह जिला भी है जहां विधायक खुद कानून की ऐसीतैसी करते घूम रहे है और दूसरे दिन एसपी कहते हैं- का करोगे भगवान सब देख रहा है.