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Wednesday, September 26, 2007

सर्वश्रेष्ठ असफल क्यों?

क्या आपने कभी सोचा है कि अस्पताल, स्कूल या अन्य सरकारी संस्थाएं जहां सरकार कई चरणों की भर्ती प्रक्रिया के बाद बेहतरीन अभ्यर्थियों की भर्ती करती है फिर भी उनसे अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिल पाती है? स्कूल का मामला लें उन शिक्षकों की भर्ती होती है जिनकी योग्यता सर्वश्रेष्ठ होती है, वे प्रतियोगी परीक्षाओं में भी बेहतरीन अंक लाते हैं , उनका साक्षात्कार भी बेहतर होता है , भर्ती उपरांत इन्हें अच्छा खासा वेतन भी मिलता है लेकिन जब ये शिक्षक बन कर सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं तो उन स्कूलों का परिणाम काफी कमजोर होता है. ठीक इसके दूसरी ओर निजी स्कूलों में कम तनख्वाह में अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले शिक्षक शैक्षणिक दायित्व निभाते हैं इन्हें कम वेतन भी मिलता है लेकिन इन्हीं स्कूलों का परिणाम शानदार होता है. दूसरी ओर सरकारी अस्पतालों में बेहतरीन चिकित्सक रखे जाते हैं इन्हें भी अच्छे वेतन के साथ अच्छी खासी सरकारी सुविधाएं व अन्य फंड मिलते हैं लेकिन … इसके विपरीत निजी अस्पतालों में वे चिकित्सक जो सरकारी चयन में असफल रह जाते हैं उनको रखा जाता है लेकिन ज्यादातर मरीज सरकारी अस्पताल से यहां रेफर किये जाते हैं या फिर सरकारी की अपेक्षा निजी अस्पतालों में जाना पसंद करते हैं आखिर ऐसा क्यों … क्या यह माना जाए कि अब सर्वश्रेष्ठ असफल हो रहे हैं या सर्वश्रेष्ठता के मायने बदल गए हैं. जिस दिन इस पर विचार कर इस आधार पर योजनाएं तैयार होंगी तब शायद स्वास्थ्य व शिक्षा के बेहतर परिणाम मिलने लगेंगे.
वहीं इसका दूसरा पहलू और देखें - हम और आप सरकारी अस्पतालों में जाते हैं जहां पाते हैं गंदगी करने में कोई संकोच नहीं करते लेकिन निजी अस्पतालों में जाते ही तमाम निर्देशों का पालन करने लगते हैं. कचरा डस्टबीन में ही फेंकते हैं थूकने के लिए बाहर जाते हैं आदि… तो क्या हम सरकारी व्यवस्थाओं के सहयोगी नहीं हैं… इसमें भी व्यापक सुधार की आवश्यकता हैं वरना हम कह सकते हैं की निजीकरण ही ज्यादा बेहतर विकल्प है सफलता के लिये …

Friday, September 7, 2007

चैलेन्जः हिम्मत है तो एक फोल्डर बना कर दिखाएं


महोदय

आप सब को नमस्कार. मैं अपने कम्प्यूटर में एक फोल्डर बनाने की कोशिश करते-करते थक गया लेकिन con नाम से फोल्डर नहीं बना सका. अगर आप में दम है तो con नाम से फोल्डर बना कर दिखाएं यदि सफलता मिले तो उसके बनाने का तरीका बताएं और हो सके तो यह भी बताएं कि आखिर con नाम से फोल्डर साधारण तौर पर क्यों नहीं बनाया जा सकता है.

Tuesday, September 4, 2007

हीरा खदानों में अस्मत लुटाने को मजबूर अबला

चारों ओर हल्ला है कि महिलाओं की तस्वीर बदल रही है. लेकिन मेरे नजरिये से ऐसा कहने वाले तस्वीर का सिर्फ एक ही पहलू देख रहे हैं. यह सही है महिलाएं आज हर क्षेत्र में परचम लहरा रही हैं कई मामलों में पुरुषों को भी पीछे छोड़ रही हैं लेकिन ग्रामीण भारत की स्थिति आज भी जस की तस है. यह अलग बात है कि कुछ एक महिलाएं अपवाद स्वरूप आगे आ रही हैं लेकिन संपूर्ण स्थितियों का यदि आकलन किया जाए तो आज भी हम उन्हीं पुरातन मान्यताओं के दायरे में उन्हें कैद पाते हैं. आज भी गांवों में महिलाएं शोषण और उत्पीड़न का शिकार हैं.
और तो और कई जगह तो महिलाओं की यह स्थिति है कि उन्हें उस व्यवस्था से गुजरना पड़ता है जिन्हें आज का समाज और कानून कहीं से मान्यता नहीं देता है.
भारत की सबसे प्रसिद्ध पन्ना की हीरा खदानों में महिला उत्पीड़न का नजारा सामान्यतौर पर देखने को मिल सकता है कुछ यही हालात चित्रकूट के तराई अंचल में चलने वाली खदानों के भी हैं. यहां की उथली हीरा खदानों में हजारों की संख्या में महिलाएं काम करती है. इन हीरा खदानों में शुरुआती चरण में जब खुदाई होती है और कठोर पत्थर निकलता है तब तक तो हालात सामान्य रहते हैं लेकिन जैसे ही खदान में भुरभुरा पर मिलता है तो महिलाओं की इज्जत का काला अध्याय यहां के स्थानीय ठेकेदार लिखना शुरू कर देते हैं. दरअसल भुरभुरी मिट्टी को छानने धोने की प्रक्रिया की जाती है क्योंकि इसी में हीरा मिलने की संभावना सबसे ज्यादा रहती है. रोज शाम को जब मजदूर काम करके वापस जाने लगते हैं तो शुरू होता है इनकी तलाशी का दौर . इस दौरान बाकायदे सबको निर्वस्त्र करके तलाशी ली जाती है. चाहे वह पुरुष हो या महिला . और तलाशी लेने वाले ठेकेदार के आदमी होते हैं. महिला की तलाशी भी वही लेते है. अब कल्पना कीजीए कि इस दौरान महिला को किस स्थिति का सामना करना पड़ता होगा. कई बार तो तलाशी हैवानियत की हद तक पहुंच जाती है और तलाशी के नाम पर गुप्तांगों को भी नहीं बख्शा जाता. लेकिन अब यहां काम करने वाली महिलाएं इन सबकी आदी हो गई है. यहां शासन की रोजगार दिलाने की तमाम योजनाएं चलने के बाद भी वे इन तक नहीं पहुंच पा रही है और महिलाओं को इस प्रथा से मुक्ति नहीं मिल पा रही है. यहां काम करने वाला तबका ज्यादा तर वनवासी व आदिवासी है. जिसे शासन व उसकी योजनाओं का कोई ज्ञान नहीं है. कुछ यही हाल चित्रकूट के तराई क्षेत्र का है. यहां हर दिन महिलाओं की अस्मत से खेला जाता है. यहां काम करने वाली महिलाएं ज्यादातर ठेकेदार और उनके गुर्गों की हवस पूर्ति का साधन बन चुकी है. दरअसल यह क्षेत्र दस्यु प्रभावित है. यहां काम करने से सरकारी अमला डरता है और यदाकदा कोई सूचना मिलती भी है तो उसके निराकरण के लिये जाने से कतराता है. इसलिये यहां दैहिक शोषण जीवनशैली बन चुका है. और महिलाएं भी इसे अपने व्यवहार में शामिल कर चुकी हैं. हालात यहां इतने बदतर हैं कि इनके बच्चे बाहर खेल रहे होते हैं और अंदर झोपड़े में कोई इनकी अस्मत से खेल रहा होता है.
... अब इन परिस्थितियों को देख कर कौन कहेगा कि आज महिलाओं की तस्वीर बदल रही है. हां यह जरूर है तस्वीर का एक पहलू बदल रहा है .

भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार न्यायाधीश के सामने


देश में यदि भ्रष्टाचार दूर करने की मुहिम शुरू हो तो उसमें सबसे बड़ी बाधा न्यायालय ही होगा. हमेशा अखबारों और न्यूज चैनलों में यह खबर प्रमुखता से दी जाती है कि विश्व के सर्वाधिक भ्रष्ट देशों में भारत फलां नम्बर पर... फिर बताया जाता है कि भारत में सर्वाधिक भ्रष्ट नेता हैं फिर पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी हैं. लेकिन मेरी नजर में सबसे ज्यादा भ्रष्ट लोग न्यायालय के अंदर ही बैठे है. किसी भी लोवर कोर्ट में चले जाइए ... वहां बड़ी सहजता से खुले आम घूस लेते लोग आपको मिल जाएंगे. वो भी जज के सामने , लेकिन मजाल क्या किसी की कोई घूस देने से इंकार कर दे.अमूमन वादी - प्रतिवादी किसी को भी कोर्ट में अपनी पेशी बढ़वानी है या कोई दस्तावेज सम्मिलित करवाना है तो वहां कोर्ट के अंदर ही आपको वहां बैठे बाबू को पैसे देने ही होंगे. अपको किसी दस्तावेज की नकल लेना है तो पैसे देने ही होंगे. कोर्ट के रिकार्ड रूम से कोई दस्तावेज लेना है तो पैसे देने होंगे, कोई आवेदन लगाना हो तो पैसे लगेंगे. और यह सब जज के सामने ही खुलेआम होता है. क्या जज की निगाहें यहां नहीं जाती ....लेकिन मामला न्यायपालिका का है तो बोले कौन . फिर हम सुविधाभोगी हो ही चुके है, हमें आदत पड़ गई है गलत तरीके का पालन करने की तो फिर यहां सब जायज है. लेकिन मेरी नजर में भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है तो वह है न्यायपालिका में वह भी जज के सामने लेकिन कभी यह मामला न तो लिखा गया न ही दिखाया गया......है कोई माई का लाल जो इस पर रोक लगाने की बात कर सके ...... लेकिन मुझमें तो नहीं है यह हिम्मत क्योंकि शायद मैं अकेला ही खड़ा नजर आउंगा .... और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता.

Sunday, September 2, 2007

योग से डरे क्रूसेड के धर्मयोद्धा

भारत को अंग्रेजों ने भले ही सन् १९४७ में आजाद कर दिया हो लेकिन आज भी वे भारत व भारत वासियों को गुलामी की मानसिकता से ही देखते हैं. यही कारण है कि वे हमारे विकास को पचा नहीं पाते चाहे वह विकास आर्थिक , सामाजिक , वैज्ञानिक ,सांस्कृतिक या फिर धार्मिक हो.
इस बार इनका भय हमारी प्राचीन वैज्ञानिक उपलब्धि योग से है. हमारे ऋषि मुनियों ने मानव शरीर को स्वस्थ व स्फूर्ति से भरा बनाए रखने के लिये शरीर के लिये कुछ व्यायाम के तरीके खोजे . जिसके लाभदायी परिणाम का नतीजा है कि यह भारतीय योग आज पूरे विश्व में अपना परचम लहरा रहा है. पूरा विश्व इसकी पनाह में आ रहा है. इस बढ़ती प्रसिद्धि से मिशनरी को अपने धर्म पर खतरा मंडराता दिखाई देने लगा है. या फिर वे आज भी भारत के सांस्कृतिक तौर पर अपना गुलाम मानते हैं.
विगत दिवस इंग्लैंड के बैपटिस्ट चर्च और सेट जेम्स चर्च के पादरियों द्वारा चर्च में चल रहे योग अभ्यास केन्द्रों पर रोक लगाते हुए स्कूलों में भी योग सिखाने पर पाबंदी लगाने की घटना उनकी ओछी और कमजोर मानसिकता को ही दर्शाती है. यह कहना कि ईसाइयत के अनुसार योग का दर्शनशास्त्र झूठा है तथा योग गैर - धार्मिक कृत्य है यह ईसाईत की कौन सी सोच और परिभाषा है ... यह मेरे समझ के परे है. शायद ईसाईत इतनी कमजोर है कि उसे योग से अपनी चूले हिलती नजर आ रही हैं तो फिर इस धर्म के बारे में कुछ कहना बेमानी है. बहरहाल मेरे नजरिये से योग सिर्फ एक शारीरिक व्यायाम का कौशल है जो शरीर को निरोगी रखता है.
वहीं ईसाईत की बात करे तो उनके हिन्दुस्तान में जो कृत्य है वे वास्तव में उचित नहीं कहे जा सकते हैं. कई ऐसे मामले है जो सीधे धर्मान्तरण से जुड़े हैं. फिर भी योग पर प्रतिबंध यह बताता है कि क्रूसेड के धर्मयोद्धा कितने कमजोर हैं .