
मामला दरअसल सरकार ही नहीं विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का है. परमाणु डील से शुरू हुई लड़ाई अब राजनीतिक स्वार्थ का रूप ले चुकी है. जो जहां अवसर पा रहा है वहीं बिक रहा है. जिसे अवसर मिल रहा है वह खरीद रहा है. खरीदने और बिकने वाले कोई और नहीं लोकतंत्र के वे नुमाइंदे हैं जो हमारी ही गलती से वहां तक पहुंचे हैं जहां पहुंचने का मेरी नजर में कोई हकदार नहीं है. न तो इन्हे लोकतंत्र की मर्यादा का ज्ञान है न ही उन्हें उस मुद्दे की ही जानकारी है जिस पर लड़ाई हो रही है.
परमाणु करार से यह नुकसान है ... इस करार से यह फायदा है... दिनभर इसका राग तो वे अलाप रहे हैं लेकिन उन्हें यही जानकारी नहीं है कि परमाणु करार है क्या?
इनसे हालांकि उम्मीद ही नहीं करनी चाहिए लेकिन इनकी हरकते देख

कर तो मैं शर्मशार हो ही रहा हूं कि इनके दम पर हम भविष्य में भारत को महाशक्ति का दर्जा दिलाने का स्वप्न देख रहे हैं. इनसे बेहतर तो सड़ी लाशों में बिलबिलाने वाले वे कीड़े हैं जिन्हे यह जानकारी होती है कि कौन सी लाश सड़ी है और कौन नहीं. लेकिन हमारे ने नेता तो यह भी नहीं जानते कि कौन से और किस मामले में उन्हें बिलबिलाना है. हत्यारे और अपराधी देश की दिशा तय कर रहे हैं. अनपढ़ों की फौज हाइड एक्ट पर रटारटाया बयान दे रही हैं...
इन्हें टीवी स्क्रीन पर देख कर व अखबारों में पढ़कर तो इनके बारे में घिन आ रही है. एक चैनल का वह प्रश्न जिसमें सांसदों से यह पूछा गया कि एटमी डील क्या है? उनके जवाब सुनकर शायद बुद्धिजीवी तो कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं है.
इसलिये सभी से निवेदन है इस मुद्दे पर कुछ न कुछ तो टिप्पणी लिखें. जरूर यह आवाज ज्यादा दूर तक नहीं जाएगी लेकिन जहां भी जाएगी अपनी धमक तो सुना कर ही रहेगी.