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Wednesday, August 20, 2008

2012 में प्रलय होना असंभव

हर चैनल अखबार में इन दिनों यही बात कि 2012 में प्रलय का दिन है. आज तो इण्डिया टीवी वालों ने इसका ऐसा प्रदर्शन किया मानों कि भविष्य में जाकर
सब कुछ देख कर ही आएं है. यहां मैं कहना चाहता हूं कि यह सब बेसिर पैर की बातें हैं. ये सभी अपने तरीके से सिर्फ अपने को हिट कर रहे हैं. न तो इनके द्वारा किसी विषय विशेषज्ञों से बात होती न ही इनके संवाददाता कुछ जानते सिर्फ भ्रम फैला कर अपनी टीआरपी. बढ़ा रहे है. कभी कहेंगे वैज्ञानिकों का ऐसा दावा है या फिर कुछ और लेकिन यह नहीं बताएंगे किस वैज्ञानिक का ऐसा कहना है...
विज्ञान के नजर में पृथ्वी की प्रलय (जीवन का विनाश) सिर्फ सूर्य या उल्कापिंड या फिर सुपर बाल्कैनो (महाज्वालामुखी) ही कर सकते हैं. इसमें भी सुपर बाल्कैनों पृथ्वी से संपूर्ण जीवन का विनाश करने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि कितना भी बड़ा ज्वालामुखी होगा वह अधिकतम 70 फीसदी पृथ्वी को ही नुकसान पहुंचा सकता है. रही बात उल्कापिंड की तो अभी तक पृथ्वी के घूर्णन कक्षा या इसके आसपास ऐसी कोई उल्कापिंड अभी तक नहीं दिखी है जो पृथ्वी को प्रलय के मुहाने पर ला दे, न ही अभी दूर-दूर तक ऐसी कोई संभावना है. तीसरा है सूर्य- तो सूर्य जब अपनी चरम अवस्था में पहुंचेगा तभी वह पृथ्वी मे प्रलय ला सकता है. दरअसल सूर्य एक तारा है. हर तारे की मौत तय होती है.
जब यह मरता है तो अपने सारे ग्रहों के साथ मरता है. तारा खत्म होने से पहले लाल दानव तारा या श्वेत बामन तारे में बदलता है. इस प्रक्रिया में उसका द्रव्यमान काफी कम होता जाता है जिससे उसकी प्रचंडता और गुरुत्वाकर्षण में बढ़ोत्तरी होती जाती है. इसके प्रभाव से वह अपने ग्रहों को अपनी ओर खींच कर उन्हें जला देता है फिर स्वयं ब्लैक होल में बदल जाता है. ब्लैक होल इस लिये कहा जाता है क्योंकि इसका गुरुत्वाकर्षण इतना ज्यादा होता है कि अपने पास से गुजरने वाले प्रकाश जिसकी गति तीन लाख किलो मीटर प्रति सेकेण्ड होती है उसे भी अपनी ओर खीच लेता है. इस कारण वहां काला धब्बा ही नजर आता है. लेकिन अभी सूर्य को इस अवस्था में आने में अरबों वर्ष लगेंगे. दूसरी ओर कुछ का कहना है 2012 में सूर्य अपने चरम पर होगा और पृथ्वी झुलस जाएगी. हां यह सही है इस दौरान सूर्य अपने चरम पर होगा. लेकिन यह हर 11 वर्ष में होने वाली सतत प्रक्रिया है. जिसे इलेवन इयर साइकिल के नाम से जाना जाता है. इस दौरान सूर्य में सन स्पाट ज्यादा बनते हैं, सौर आंधिया चलती हैं तथा सौर लपटें ज्यादा बडी बनती है. जिससे सौर विकरण काफी तीव्र गति से बनते है. यहां यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि सौर लपटें पृथ्वी तक नहीं आ सकती न ही आंधी. हां यहां सौर विकरण का प्रभाव होता है तथा इलेक्ट्रोमैग्नेटिक प्रभाव जरूर असर करता है. वह भी ध्रुवों पर ज्यादा. लेकिन इसके प्रभाव कृत्रिम उपग्रहों, विमानों, अंतरिक्ष यानों तथा यान से बाहर रहने वाले अंतरिक्ष यात्रियों पर पड़ता है.
कास्मिक रे पर काम कर रहे विश्व के तीसरे सबसे बड़े वैज्ञानिक डॉ एस.पी. अग्रवाल ने इन बातों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मानव जीवन पर इसका प्रभाव इतना मात्र होगा कि पक्षी यदा कदा अपना रास्ता बदल देते हैं तथा नगण्य संख्या में हृदय रोगी परेशानी में आ सकते हैं. इसके अलावा मानव जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. उन्होंने कहा कि यह कहना कि 2012 में पृथ्वी में प्रलय होगी पूर्णतः गलत है. साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि जैसे लोग कहते हैं कि प्रलय में पृथ्वी डूब जाएगी तो वह भी गलत है क्योंकि यदि समुद्र का पूरा पानी तथा आसमान में व्याप्त पूरी वाष्प का पानी तथा पृथ्वी में मौजूद पूरी बर्फ भी यदि पिघल कर पानी बन जाए और पूरी पृथ्वी पर फैले तो वह पूरी धरती से महत ढाई फीट उंचाई तक ही पानी भर सकती है और यह पूरा पानी सत्रह दिन में सतह द्वारा सोख लिया जाएगा.

इस लिये पृथ्वी के प्रलय के डर से दूर होकर मस्त रहें तथा चैनलों व अखबारों की प्रलय भरी बेवकूफियों का आनंद लें. मेरा मानना तो यह है कि इन चैनलों को हकीकत सामने लानी चाहिए अंधविश्वास दूर करना चाहिए न कि जबरन की नाटकीयता द्वारा लोगों में भय भरना चाहिये.

Sunday, August 17, 2008

भाषा, संस्कृति और गांव का दामाद

विकसित राष्ट्र और हिन्दी का विकास में अनुनाद सिंह की टिप्पणी का मैं पूरा सम्मान करता हूं. हो सकता है मैं गलत भी होऊं लेकिन मैं अनुनाद सिंह से पूरी तरह सहमत नहीं हूं.
यह सही है कि लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लेकिन महोदय यहां आपको गुलाम कौन बना रहा है. दरअसल हम सभी अपनी रोटियां सेंकने के लिये हमेशा एक भय का वातावरण बनाने के आदी हो गए हैं कि फलां हमें गुलाम बना रहा है मैं पूछता हूं कि कौन सा देश भारत को भाषा व संस्कृति के आधार पर गुलाम बनाने की कोशिश कर रहा है. मेरे ख्याल से कोई नहीं .... लेकिन फिर भी हम कहने से नहीं चूक रहे...

दरअसल हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम हिन्दी भाषा के साक्षर होने की बात करते हैं या हिन्दी की स्वीकार्यता की. हिन्दी साक्षर करने की बात है तो उसे शिक्षा से जोड़ दीजिए लेकिन यदि ससम्मान हिन्दी की स्वीकार्यता की बात करें तो फिर शायद हमें अपने पैरों पर पहले खड़े होना होगा फिर हिन्दी की आवाज उठानी होगी.

रही बात मैकाले की संस्कृति की तो मुझे याद है कि पहले मेरे पिता जी जब अपनी ससुराल जाते थे तो वे पूरे गांव के दामाद होते थे और मैं पूरे गांव का भान्जा लेकिन आज उस घर में ही नई पीढ़ी दामाद को पहचान ले तो बड़ी बात है. क्यों हम अब घर के आंगन को कुंवारा रखते हुए बारात घरों से शादी करते हैं. बाराते दूसरे गांव या शहर न जाकर वधू पक्ष को अपने शहर में बुला लेते हैं क्या इससे हम एक दूसरे के रीति रिवाजों से परिचित हो सकेंगे. दूसरी एक और बात याद आती है कि हमारे पड़ोस की आंटी के यहां मायके से जब अचार आता था तो वे हमें भी देती थी. बदले में जब वह कटोरी वापस की जाती थी तो हमारे घर से भी कुछ न कुछ दिया जाता था. इस लेन देन को आप क्या कहेंगे. समाजिक बंधन या समाज वाद या कुछ और लेकिन आज के बड़े लोग इतनी दूरियां बना चुके हैं कि यदि घर में प्याज खत्म है तो वे पड़ोस से मांगना शर्म की बात कहेंगे. हो सकता है मैं गलत होऊं लेकिन वो अचार और प्याज हमें सामाजिक रूप से जोड़ती है तो गांव का दामाद हमें सांस्कृतिक रूप से मजबूत करता है. लेकिन अब यह दोनो हाशिये पर जा रहे हैं. यह तो महज कुछ उदाहरण है लेकिन हमारे अगल बगल में आज न जाने कितना कुछ बदल चुका है. हमारे बच्चे अब पड़ोसियों के भरोसे नहीं छोड़े जा सकते आखिर यह सब क्या है. हम सिर्फ पाश्चात्य संस्कृति का रोना रोते है लेकिन अपनी विरासत को खुद खोते जा रहे हैं .... इसलिये मेरा मानना है कि भाषा और संस्कृति का दिखावा करने से कुछ नहीं होगा हमें खुद बदलना होगा तथा उन्नत होना होगा तब जाकर कहीं हमें सफलता मिलेगी.

विकसित राष्ट्र और हिन्दी का विकास

अमेरिका के पास सबसे ज्यादा पैसा है, आस्ट्रेलिया के पास सबसे ज्यादा यूरेनियम है, हर विकसित देश के पास पर्याप्त संसाधन हैं लेकिन भारत के पास पर्याप्त लोग है... अर्थात पर्याप्त मानव संसाधन हैं. लेकिन इनके लिये भारत में न तो पर्याप्त संसाधन हैं न अवसर.
अब बात करते हैं अपनी भाषा और उसके सशक्तिकरण की. हम हमेशा यही राग अलापते हैं कि हिन्दी को मजबूत करने के कोई प्रयास नहीं किये जा रहे तो मेरे एक मित्र सदैव यह उदाहरण देते हैं कि विदेशों में उन देशों की भाषा ही सर्वमान्य भाषा है वहां चपरासी से लेकर अधिकारी तक सभी एक ही भाषा में काम करते हैं. वहां पढ़ाई भी एक ही भाषा में होती है लेकिन भारत में ऐसा नहीं फिर इस पर लंबी बहस होती है और बात बेनतीजा हो कर अधूरी रह जाती है. काफी सोचने के बाद मेरा मानना है कि जब तक हम विकसित देश नहीं हो जाते तब तक हिन्दी पूरे देश की भाषा नहीं बन सकती चाहे इसके लिये हम कितने भी प्रयास कर लें या फिर कितने भी आयोजन कर लें.

अब हम बात करते हैं कि भारत की पूरी शिक्षा हिन्दी में क्यों नहीं होती तो मेरा मानना है कि चलिये हम पूरी शिक्षा हिन्दी में कर भी लेते हैं सारी किताबे हिन्दी में तैयार भी हो जाती हैं तकनीकी, चिकित्सा सहित सारी पढ़ाई हिन्दी में शुरू हो जाती है तो हासिल क्या होगा... इन परिस्थितियों में जो भी पेशेवर तैयार होंगे वे बेहतर हिन्दी तो जानेगें लेकिन उन्हे हम कितना रोजगार दे पाएंगे... क्या हमारे यहां इतनी व्यवस्थाएं हैं कि उन्हें हम अपने यहां खपा सकें... शायद नहीं. फिर ये बेहतर हिन्दी भाषी क्या बाहर रोजगार पा सकेंगे...

दूसरा क्या हमारे यहां इतने संसाधन हैं कि नित नई खोज अपने यहां अपनी भाषा में कर सकें... निश्चित तौर पर नहीं फिर हम हिन्दी भाषी अपने अल्पसंसाधनों व हिन्दी भाषा ज्ञान के माध्यम से बाहरी प्रणालियों से समन्वय बना सकेंगे... शायद नहीं

लोग कहते हैं विदेशों में जाने वाले लोगों को वहां की भाषा सीखनी पड़ती है तो भारत आने वाले क्यों नहीं सीखते हिन्दी... तो महाशय हम अभी विकास की उस प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जहां लोग अभी आना शुरू किये हैं. यदि हम उन्हें अभी नहीं समझ पाएंगे या उन्हें नहीं समझा पाएंगे तो वे दूसरी ओर जाना शुरू कर देंगे... फिर हम उनपर हिन्दी लाद कर क्या हिन्दी का विकास कर सकेंगे...

आज हम गरीबी के साथ जीने वाले तथा कम रोजगार के अवसरों से घिरे देश में रह रहे हैं यदि हमने हिन्दी की चादर ओढ़ ली तो क्या हम रोजगार के बेहतर अवसर बाहर पा सकेंगे... शायद नहीं...

ऐसे कई मामले हैं जहां पूर्ण हिन्दी अपना लेने से हम नुकसान में रहेंगे. हां लेकिन जब हम विकसित राष्ट्र हो जाएंगे तथा हमारे मानव संसाधन पूर्ण संसाधन में बदल जाएंगे तो फिर हमें दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा. उस समय हम हिन्दी को लोगों की मजबूरी बना सकेंगे. तब हमारे पास मानव संसाधन को खपाने के पर्याप्त संसाधन होंने और उसका माध्यम होगी हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी...

इसलिये यदि हिन्दी को राष्ट्र भाषा तथा सर्वमान्य भाषा बनाना है तो हिन्दी के विकास के दिखावटी प्रयास बंद कर देश को विकसित राष्ट्र बनाने में जुटें. विकसित होते ही हिन्दी अपने आप राष्ट्र भाषा बन जाएगी.

Saturday, August 16, 2008

याहू मेल से beta हट गया

मैं जिस error से परेशान था दरअसल वह याहू द्वारा किया गया अपग्रेडेशन था. अभी तक मैं याहू मेल का लेटेस्ट बीटा वर्सन प्रयोग कर रहा था लेकिन अब याहू ने इसकी टेस्टिंग पूरी कर ली है और इसे पूर्ण परीक्षण उपरांत नए सिरे से लांच कर दिया है. अब याहू मेल का एडवांस वर्सन बीटा नहीं रह गया. जो लोग याहू मेल क्लासिक प्रयोग कर रहे थे शायद उन्हे इस समस्या से न जूझना पड़ा हो.

Friday, August 15, 2008

समस्याग्रस्त हुआ याहू मेल

याहू की मेल सेवा 14 अगस्त से किसी बड़े error से जूझ रही है. वजह तो नहीं मालूम लेकिन याहू मेल इन दिनों सामान्य स्थितियों में नहीं खुल रहा. पहले तो मैने सोचा कि शायद मेरे मेल बाक्स में ही कुछ उल्टा सीधा हो गया होगा लेकिन जब अपने कुछ मित्रों से पूछा तो वे भी इसी समस्या से जूझ रहे थे. यह बात तो सतना जिले की है. बाकी का मुझे पता नहीं. यदि आपके साथ भी कुछ ऐसा है तो बताएं. कुछ का तो यह भी कहना है कि जी-मेल से मिल रही चुनौतियों से बचने के लिये शायद याहू वालों ने कुछ अपग्रेडेशन शुरू किया है. यह समस्या शायद इसी वजह से आ रही हो.