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Sunday, August 17, 2008

भाषा, संस्कृति और गांव का दामाद

विकसित राष्ट्र और हिन्दी का विकास में अनुनाद सिंह की टिप्पणी का मैं पूरा सम्मान करता हूं. हो सकता है मैं गलत भी होऊं लेकिन मैं अनुनाद सिंह से पूरी तरह सहमत नहीं हूं.
यह सही है कि लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लेकिन महोदय यहां आपको गुलाम कौन बना रहा है. दरअसल हम सभी अपनी रोटियां सेंकने के लिये हमेशा एक भय का वातावरण बनाने के आदी हो गए हैं कि फलां हमें गुलाम बना रहा है मैं पूछता हूं कि कौन सा देश भारत को भाषा व संस्कृति के आधार पर गुलाम बनाने की कोशिश कर रहा है. मेरे ख्याल से कोई नहीं .... लेकिन फिर भी हम कहने से नहीं चूक रहे...

दरअसल हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम हिन्दी भाषा के साक्षर होने की बात करते हैं या हिन्दी की स्वीकार्यता की. हिन्दी साक्षर करने की बात है तो उसे शिक्षा से जोड़ दीजिए लेकिन यदि ससम्मान हिन्दी की स्वीकार्यता की बात करें तो फिर शायद हमें अपने पैरों पर पहले खड़े होना होगा फिर हिन्दी की आवाज उठानी होगी.

रही बात मैकाले की संस्कृति की तो मुझे याद है कि पहले मेरे पिता जी जब अपनी ससुराल जाते थे तो वे पूरे गांव के दामाद होते थे और मैं पूरे गांव का भान्जा लेकिन आज उस घर में ही नई पीढ़ी दामाद को पहचान ले तो बड़ी बात है. क्यों हम अब घर के आंगन को कुंवारा रखते हुए बारात घरों से शादी करते हैं. बाराते दूसरे गांव या शहर न जाकर वधू पक्ष को अपने शहर में बुला लेते हैं क्या इससे हम एक दूसरे के रीति रिवाजों से परिचित हो सकेंगे. दूसरी एक और बात याद आती है कि हमारे पड़ोस की आंटी के यहां मायके से जब अचार आता था तो वे हमें भी देती थी. बदले में जब वह कटोरी वापस की जाती थी तो हमारे घर से भी कुछ न कुछ दिया जाता था. इस लेन देन को आप क्या कहेंगे. समाजिक बंधन या समाज वाद या कुछ और लेकिन आज के बड़े लोग इतनी दूरियां बना चुके हैं कि यदि घर में प्याज खत्म है तो वे पड़ोस से मांगना शर्म की बात कहेंगे. हो सकता है मैं गलत होऊं लेकिन वो अचार और प्याज हमें सामाजिक रूप से जोड़ती है तो गांव का दामाद हमें सांस्कृतिक रूप से मजबूत करता है. लेकिन अब यह दोनो हाशिये पर जा रहे हैं. यह तो महज कुछ उदाहरण है लेकिन हमारे अगल बगल में आज न जाने कितना कुछ बदल चुका है. हमारे बच्चे अब पड़ोसियों के भरोसे नहीं छोड़े जा सकते आखिर यह सब क्या है. हम सिर्फ पाश्चात्य संस्कृति का रोना रोते है लेकिन अपनी विरासत को खुद खोते जा रहे हैं .... इसलिये मेरा मानना है कि भाषा और संस्कृति का दिखावा करने से कुछ नहीं होगा हमें खुद बदलना होगा तथा उन्नत होना होगा तब जाकर कहीं हमें सफलता मिलेगी.

4 comments:

अनूप शुक्ल said...

अनुनाद सिंह के इस विचार से शत-प्रतिशत सहमत हूं-अपनी भाषा में शिक्षा से लोगों में मौलिकता आती है और मौलिकता ही नवाचार (इन्नोवेशन) के लिये जिम्मेदार है, न कि रटी-रटायी विद्या। रटी-रटायी विद्या 'नौकर' बनाने के लिये सबसे उपयुक्त है।

Anonymous said...

मैने अनुनाद जी की टिप्पणी नही पढा है, लेकिन मै आप की बातो से पुरी तरह सहमत नही हु । मै नेपाल से हुं । यहां अमेरिकी सरकार अमेरिकन अंग्रेजी के प्रचार के लिए पैसे खर्च कर रही है । बिलायत अपनी अंग्रेजी प्रसार के लिए ब्रिटीश काउंसील के मार्फत काम कर रहा है । लेकिन भारत सरकार के उंचे पदो पर एसे लोग बैठे है जो अंग्रेजी बोलने वालो को ही अपना माई बाप मांते है । भारत मे हिन्दी के माध्यम से कोई डाक्टर या ईंजीनीयर नही बन सकता है । जबकी कोरिया जैसे देश भी अपनी भाषा मे ही उच्च शिक्षा उपलब्ध करा रहे है । आज भारत के सत्ता पर बैठे लोग काले अंग्रेज की तरह ही व्यवहार कर रहे है । मै यह मानता हु की जब तक भारत अपनी भाषा मे लोगो को शिक्षा के अवसर उपलब्ध नही करवाता, तब तक विकास नही कर सकता । राज्य को राष्ट्र भाषा के विकास मे दिलचस्पी दिखानी चाहिए ।

Basera said...

मैं बेनाम जी की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत ही नहीं, बल्कि मेरे भी बिल्कुल यही ख्याल हैं। जब तक भारत अपनी भाषाओं में काम नहीं करता तब तक वह 'सही मायनों में' विकास नहीं कर सकता। उसका सामाजिक ढाँचा उखड़ता जायेगा।

Anwar Qureshi said...

एक अच्छी पोस्ट है ..शुक्रिया ...