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Sunday, March 19, 2017

पॉवर हंग्री जनता और चरम लोकप्रियता


यूपी में भाजपा की जीत नही मोदी की जीत है। विगत दिवस इंटेलिजेंस के पूर्व अधिकारी से हो रही चर्चा में उन्होंने कहा था 1980 में जो लोकप्रियता का चरम इंदिरा का था वही इस समय मोदी का है। जनता का विश्वास अभी जिस तरह मोदी पर है उसमें मोदी सही करें या गलत अभी जनता उसे सही मानेगी। कुछ ऐसा ही टाइम मैगजीन ने भी माना।
दरअसल भारत की जनता की वृत्ति ही ऐसी है। पॉवर की भूखी। इंदिरा और मोदी दोनों को पॉवर हंग्री जनता मिली और दोनों ने इसी भूख को और चरम पर ले जाकर दशा और दिशा अपनी ओर कर ली।
दोनों में लोकप्रियता का चरम इतना है कि इनके गलत और नीति विरुध्द निर्णय कोई मायने नही रखेंगे। इसपर जितना भी इनका विरोध और जुबानी हमले होंगे उतने ही मजबूत होंगे।
मित्र की चर्चा का निष्कर्ष था कि लोकप्रियता का ये झोंका 19 तक झंझावात पैदा करता रहेगा और इसका फायदा एमपी में बीजेपी को मिलना अवश्यम्भावी है।
दूसरी ओर कांग्रेस के पास ऐसा कोई चेहरा नही है जो इस लोकप्रिय चेहरे से ध्यान अपनी ओर खींचे। शायद प्रियंका पर दांव लगाया जाये तो कुछ हल निकल सकता है, लेकिन हुकुम के इस इक्के को कब फेंकना है ये भी शातिर खेल का अंग है, वरना बड़े पत्ते गलत चाल से छोटे के आगे ढेर हो जाते हैं।

Wednesday, March 15, 2017

यूपी में 'मुस्लिम बहुल' देवबंद में भाजपा की जीत का सच!



देवबंद में मुसलमानों ने नहीं जिताया भाजपा को, कहानी कुछ और है!


नया शगूफा बाजार में है. उत्तर प्रदेश चुनावों में देवबंद की सीट पर भाजपा की जीत पर बवाल कट रहा है.
कुछ लोग कह रहे हैं कि 80 परसेंट मुस्लिम आबादी वाली सीट से भाजपा जीती तो जीती कैसे! लिहाज़ा गड़बड़ी हुई है. जांच करवाई जाए. वहीं भाजपा समर्थक कह रहे हैं कि यहां से जीतना मुस्लिम तबके में भाजपा की स्वीकार्यता का सबूत है. जब भाजपा पर हिंदू वोटों के सहारे तर जाने का आरोप लगता है, वहीं भाजपा समर्थक देवबंद विजय का काउंटर अटैक शुरू कर देते हैं.

दोनों ही तरफ के लोग तथ्यों के फ्रंट पर गलत हैं. सबसे पहले तो बेसिक फैक्ट ही दुरुस्त करवाए देते हैं कि देवबंद विधानसभा में 80 परसेंट मुस्लिम वोटर्स है ही नहीं. ताजा जनगणना के मुताबिक, लगभग 34 परसेंट मुस्लिम वोटर्स हैं यहां. यानी कि जो दावा किया जा रहा है उसके आधे से भी कम. यानी ये दोनों ही बातें हवा-हवाई लगती हैं कि मुसलमानों ने भाजपा को जिताया या ईवीएम में फ्रॉड हुआ.

देवबंद में कुल मतदाता हैं 3,26,940. इनमें से लगभग 1,10,000 मुस्लिम वोटर्स है. 70,000 के करीब दलित वोटर्स हैं और बाकी ठाकुर, ब्राह्मण, त्यागी, गुर्जर वगैरह. इन 1,10,000 वोटर्स पर ही बवाल है. देवबंद में करीब 71 फीसदी मतदान हुआ था. इसी औसत से अज्यूम किया जाए तो 1,10,000 में से मोटा-मोटी 80,000 मुसलमानों ने वोट किया होगा. कहा जा रहा है कि इन्होंने वोट दिया भाजपा को तभी उसकी जीत मुमकिन हुई. जबकि आंकड़े कुछ और ही कहते हैं.
बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने यहां से मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे. क्रमशः माजिद अली और माविया अली. इन दोनों को मिले वोट्स पर अगर एक नज़र भी दौड़ा लें तो माजरा समझ में आ जाता है. माजिद अली को 72,844 वोट मिले हैं और माविया अली को 55,385. दोनों का जोड़ बैठता है 1,28,229. जीतने वाले भाजपा कैंडिडेट को मिले हैं 1,02,244 वोट्स. ये थ्योरी इस वोट काउंट से ही ढेर हो जाती है. अगर एक ही मुस्लिम कैंडिडेट होता तो यूं वोट बंटता नहीं और शायद उसी की जीत भी हो जाती. ‘शायद’ के साथ ये बात लिखी, क्योंकि ऐसा हो ही ये ज़रूरी नहीं.

अगर पिछले चौबीस साल में हुए पांच विधानसभा चुनावों पर नज़र डालें तो ये साफ़ हो जाता है कि यहां भाजपा हमेशा अच्छा प्रदर्शन करती रही है. मुस्लिम गढ़ कहे जाने वाले देवबंद ने बरसों से मुस्लिम विधायक का चेहरा नहीं देखा है. ज़रा नीचे की सूची पर नज़र भर मार लीजिए, मामला स्पष्ट हो जाएगा.

साल               विजेता                               उपविजेता

2012        राजेंद्र सिंह राणा (सपा)             मनोज चौधरी (बसपा)
2007       मनोज चौधरी (बसपा)                शशि बाला पुंडीर (भाजपा)
2002       राजेंद्र सिंह राणा (बसपा)          रामपाल सिंह पुंडीर (भाजपा)
1996        सुखबीर सिंह पुंडीर (भाजपा)       राजेंद्र सिंह राणा (बसपा)
1993        शशि बाला पुंडीर (भाजपा)           मुर्तज़ा (बसपा)


इसे देखकर दो बातें साफ़ हो जाती हैं. एक तो ये कि इस पूरी सूची में कोई मुस्लिम नाम नहीं है. सिर्फ पिछले साल जब उपचुनाव हुए थे तब कांग्रेस से माविया अली जीत गई थी जिनका कार्यकाल सिर्फ साल भर रहा. दूसरा ये कि भाजपा की ज़मीन यहां हमेशा से रही है. 2012 को छोड़ दिया जाए तो हर बार भाजपा कम्पटीशन में रही है. पांच में से दो बार जीती है और दो बार उपविजेता रही है. सिर्फ 2012 में यहां सपा का कैंडिडेट जीता है. उस साल सपा की लहर थी और मुस्लिम कैंडिडेट उनका भी नहीं था.
कहने की बात ये कि भाजपा की देवबंद जीत में अप्रत्याशित जैसा कुछ नहीं है. इस सीट पर जो हुआ वो कमोबेश वही है जो सारे उत्तर प्रदेश में हुआ.

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मुस्लिम इलाकों में जीत


अब आते है कुल  मुस्लिम बहुल ईलाके मे जीत पर
यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 3 चौथाई से भी ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज की। बीजेपी की जीत में सबसे बड़ी बात ये रही कि पार्टी ने उन जिलों में भी जीत दर्ज की, जहां 60 फीसदी मुस्लिम आबादी है। 11 जिलों में 40%, 5 जिलों में 30% और 10 जिलों में 20% मुस्लिम आबादी है। पश्चिमी यूपी के 11 जिलों में 40 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम हैं, फिर भी वहां बीजेपी आगे रही। पाॅलिटिकल एक्सपर्ट योगेश श्रीवास्तव का कहना है- बीजेपी को इतने बड़े स्तर पर जिताने में मुस्लिमों का वोट काफी अहम रहा।


ट्रिपल तलाक मुद्दे पर पार्टी मुस्लिम महिलाओं के मन में जगह बनाने में कामयाब हुई। पार्टी ने खुलेआम मुस्लिम महिलओं के दर्द को समझाकर अपना स्टैंड क्लीयर रखा। इसका फायदा भी मिला। बीजेपी को हमेशा से शियाओं का वोट मिलता रहा है। इस बार पूरी तरह से एकजुट होकर पार्टी को वोट देने वालों में मुस्लिम महिलाओं की संख्या ज्यादा रही।

मुस्ल‍िम कैंड‍िडेट न उतारना
- मुस्ल‍िम का बीजेपी के साथ आने के पीछे सबसे बड़ा कारण किसी भी मुस्लिम को टिकट नहीं देना। सभी पार्टियों ने अपने मुस्लिम कैंडिडेट उतारे, तो मुस्लिम बहुल इलाकों के 25 से 40 फीसदी हिंदूओं ने एकजुट होकर बीजेपी को वोट किया। जैसे किसी सीट पर अगर 40 फीसदी भी मुस्लिम हैं, तो वहां सारी पार्टियों ने मुस्लिमों को उतारा है, लेकिन बीजेपी ने हिंदू को ही प्रत्याशी बनाया और हिंदू वोटर यूनाइट हो गया। गोंडा में 32 फीसदी मुस्लिम। कुल 7 सीट, सातों पर बीजेपी जीती। आजमगढ़ में 38 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 10, बीजेपी ने एक सीट जीती। अंबेडकर नगर में 20 फीसदी मुस्लिम। कुल 5 सीट, 2 पर जीती बीजेपी। फैजाबाद में 30 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 5, पांचों पर बीजेपी जीती। मऊ में 43 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 4, बीजेपी ने 3 सीट जीती। बलरामपुर में 40 फीसदी मुस्लिम। कुल 4 सीट, चारों पर बीजेपी। गाजीपुर में 30 फीसदी मुस्लिम। कुल 7 सीट, बीजेपी ने 5 पर दर्ज की जीत। बहराइच में 20 फीसदी मुस्लिम। कुल 7 सीट, 6 सीटों पर बीजेपी जीती।
कामयाब नहीं रहा विपक्ष
इन  सीटो पर भी हिंदू को जीत मिलना बड़ी बात है। लेकिन उसका कारण भी कहीं न कहीं विपक्ष ने ही दिया है। विपक्ष इस बार मुस्लिमों में नरेंद्र मोदी का डर बनाने में कामयाब नहीं हो पाया। इससे पढ़े-लिखे कुछ फीसदी मुस्लिम वोटरों में नरेंद्र मोदी के प्रति काम और विकास को लेकर अच्छी छवि बनीं रही और यूथ का वोट उन्हें मिला। एक कारण 2014 में सरकार बनने के बाद से नरेंद्र मोदी की किसी योजना में या पाॅलिसी में कुछ भी मुस्लिम विरोधी नहीं रहा। इससे मोदी को लेकर मुस्लिमों के अंदर का डर कम हो गया, फिर नोटबंदी करना अच्छा फैसला रहा।
पूर्वी यूपी का गणित
गोरखपुर में 22 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 9, सभी पर बीजेपी ने जीत दर्ज की है। इलाहाबाद में 28 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 12, बीजेपी ने 8 पर जीत दर्ज की। जौनपुर में 22 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 9, बीजेपी ने 5 सीट जीतीं। औरैया में 28 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 3, तीनों पर बीजेपी। लखनऊ में 20 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 9, बीजेपी 8 पर जीती। सीतापुर में 20 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 9, बीजेपी 8 पर जीती।
क्या है पश्च‍िमी यूपी में मुस्ल‍िम वोट परसेंट
बिजनौर में 67 फीसदी मुस्लिम हैं। कुल सीट 8, बीजेपी 6 पर जीती। गौतमबुद्धनगर में 65 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 3, तीनों पर बीजेपी जीती। अलीगढ़ में 42 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 7, सातों पर बीजेपी जीती। मुजफ्फरनगर में 49 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 6, पूरी बीजेपी ने जीती। प्रबुद्वनगर (शामली) में 42 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 7, बीजेपी को 4 पर मिली जीत। बरेली में 47 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 9, पूरी बीजेपी ने जीती। सहारनपुर में 42 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 7, BJP 4 पर जीती। ज्योतिबाफुले नगर (अमरोहा) में 40 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 3, बीजेपी को 2 पर मिली जीत। मेरठ में 37 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 7, जिसमें 6 पर जीती बीजेपी। मथुरा में 14 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 5, जिसमें 4 पर जीती बीजेपी। गाजियाबाद में 21 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 5, सभी बीजेपी ने जीती। आगरा में 20 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 5, पांचों पर बीजेपी। बागपत में 20 फीसदी मुस्लिम। कुल सीट 3, बीजेपी को 1 पर मिली जीत।
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बीजेपी का प्लान
भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों (UP Assembly Elections) में प्रचंड बहुमत हासिल करते हुए सभी अनुमानों को गलत साबित कर दिया. यूपी जैसे बड़े प्रदेश में बीजेपी की जीत के बड़े मायने हैं और इसका असर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलेगा. विरोधी पार्टियों को समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर कमी कहां रह गई. खासतौर से समाजवादी पार्टी (SP) और कांग्रेस तो गठबंधन के बाद से जैसे जीत के प्रति आश्वस्त थे, लेकिन यह भी उनके काम नहीं आया और उनको अब तक की करारी हार झेलनी पड़ी. वैसे तो बीजेपी की जीत में कई अहम कारक हैं और विरोधियों के बीच अनिश्चितता के माहौल ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई, लेकिन उसका जनता के बीच पहुंचाया गया एक संदेश ऐसा कारक साबित हुआ कि यूपी की जनता ने कांग्रेस, सपा और बीएसपी से दूरी बना ली और उन्होंने बीजेपी के पास जाने में ही भलाई समझी...
साबित किया कि अखिलेश को है केवल 2 की ही चिंता...
विरोधी दलों में जारी उठापटक के बीच बीजेपी (BJP) एक ऐसे बड़े संदेश को जनता के बीच स्थापित करने में सफल रही, जिसने गेमचेंजर की भूमिका निभाई. उसके कार्यकर्ताओं ने गुप्त तरीके से इसे लक्षित वर्ग तक पहुंचाना जारी रखा. हालांकि पीएम मोदी ने इशारों-इशारों में प्रचार के अंतिम दौर में इसका जिक्र किया था. यह संदेश था कि सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को केवल दो की ही चिंता है- यादव और मुसलमान! इतना ही नहीं उसने इसके लपेटे में कांग्रेस और बसपा को भी ले लिया.
गौरतलब है कि उत्तरप्रदेश में बेरोजगारी की बड़ी समस्या है और अखिलेश यादव के शासनकाल में नौकरियों में यादवों का बोलबाला देखा गया. ज्यादातर विभागों में इसी जाति के लोगों को नियुक्ति दी गई और अन्य वर्ग इससे वंचित रह गए. भले ही वह पिछड़े थे. UPPSC की परीक्षा में यादव जाति के प्रतिभागियों को मिली बड़ी सफलता ने इस तथ्य को और स्थापित कर दिया. बाद में इस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की गई और UPPSC चेयरमैन डॉ. अनिल यादव के कामकाज के तौर तरीकों पर भी आरोप लगे. बाद में कोर्ट ने बोर्ड के चेयरमैन को ही हटा दिया. इससे जनता के बीच यह संदेश गया कि सपा के सत्ता में आने से अन्य वर्गों का कल्याण नहीं होगा और बीजेपी ने इसे ही भुना लिया.
तुष्टीकरण को भी उठाया...
सपा सरकार पर मुसलमानों पर भी अधिक ध्यान देने का आरोप लगा, जिससे एक हद तक हिंदू भी एकजुट होकर बीजेपी की ओर चले गए. कांग्रेस से गठबंधन होने के बाद भी उन्हें इसका फायदा नहीं मिला, क्योंकि कांग्रेस पर तो पहले से ही मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप थे. विकास के नाम पर 'काम बोलता है' का नारा भी फेल रहा, क्योंकि कई लोगों का मानना है कि लखनऊ को छोड़कर कहीं भी विकास कार्य ज्यादा नहीं हुए. खुद उनके विज्ञापन भी लखनऊ केंद्रित रहे.
दूसरी ओर बसपा सरकार के दौरान मायावती पर जाटवों को ही वरीयता देने का आरोप लग चुका था. मतलब जनता के बीच यह संदेश गया कि मायावती वापस सत्ता में आने पर फिर वही करेंगी. फिर क्या था बीजेपी के चुनाव प्रबंधकों और प्रचारकों ने जनता के बीच इस तथ्य को स्थापित कर दिया कि भारतीय जनता पार्टी ही एक ऐसा दल है जो सबके बारे में सोच रहा है और उसी को वोट देने से सबका कल्याण होगा.
इससे अखिलेश यादव और राहुल गांधी को जनता के बीच युवाओं के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने का कांग्रेस और सपा का प्रयास पूरी तरह फेल हो गया... BJP ने उत्तरप्रदेश की जनता के बीच पैठ बनाने के लिए न केवल अपने संगठन को मजबूत बनाया, बल्कि उसने बिहार वाली गलती नहीं दोहराई और चुनाव को विकास जैसे मुद्दे से नहीं भटकने दिया. कुछ विवाद भी हुए, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित उसके स्टार प्रचारकों ने इनके साथ ही जनता का ध्यान विकास की ओर केंद्रित रखा और ऐतिहासिक जीत दर्ज कर ली…

Thursday, November 1, 2012

विदेशी पूंजी से विकास का अंधविश्वास और FDI

लगभग सात वर्ष पहले की बात है. दूरसंचार क्षेत्र में निजी कंपनियों को लाइसेन्स दिये हुए कुछ वर्ष हो चुके थे. किन्तु इन कंपनियों ने सरकार को लाइसेन्स शुल्क का नियमित भुगतान नहीं किया था और उनके ऊपर अरबों रुपया बकाया हो गया था. जब उनको नोटिस दिए जाने लगे, तो इन कंपनियों ने फरियाद की कि उनका धन्धा ठीक नहीं चल रहा है, उनका शुल्क कम किया जाये और बकाया शुल्क माफ किया जाये. तब भारत सरकार के दूरसंचार मन्त्री श्री जगमोहन, एक सख्त आदमी थे. उन्होंने निजी टेलीफोन कंपनियों की बात मानने से इन्कार कर दिया और बकाया शुल्क जमा नहीं करने पर लाइसेन्स रद्द करने की चेतावनी दी. उन्होंने कहा कि आपका धन्धा नहीं चल रहा है तो बन्द कर दो, लेकिन सरकार को पैसा तो देना पड़ेगा. तब ये कंपनियाँ मिलकर प्रधानमन्त्री कार्यालय में गयीं और वहाँ फरियाद की. प्रधानमन्त्री कार्यालय ने भी उनकी तरफदारी की, किंतु जगमोहन टस से मस नहीं हुए. नतीजा यह हुआ कि जगमोहन को दूरसंचार मन्त्रालय से हटा दिया गया, प्रमोद महाजन को दूरसंचार मन्त्री बनाया गया और निजी कंपनियों की लाइसेन्स शर्तों को बदलकर करीब ५००० करोड़ रुपये की राहत उनको दे दी गई. एक ईमानदार मन्त्री और निजी कंपनियों के बीच संघर्ष में जीत कंपनियों की हुई. इस खेल में कितना कमीशन किसको मिला होगा, इसका अंदाज आप लगा सकते हैं. निजीकरण, उदारीकरण, भूमंडलीकरण के नाम पर यही खेल पिछले डेढ़ दशक से चल रहा है.

दूसरी ओर, ठीक इसी समय देश के कई हिस्सों में किसानों की आत्महत्याएं भी शुरू हो गयी थीं. खेती एक गहरे संकट में फंस चुकी थी, जिसके लिए स्वयं भूमंडलीकरण की नीतियाँ जिम्मेदार थीं. विश्व बैंक के निर्देश पर खाद, बीज, पानी, डीजल, बिजली आदि की कीमतें लगातार बढ़ाई जा रही थीं. विश्व व्यापार संगठन की नई खुली व्यवस्था के तहत खुले आयात के कारण किसानों की उपज के दाम या तो गिर रहे हैं या पर्याप्त नहीं बढ़ रहे हैं. किसानों पर भारी कर्जा हो गया है. देशी – विदेशी टेलीफोन कंपनियों को ५००० करोड़ रुपये की राहत देने वाली सरकार को यह ख्याल नहीं आया कि किसानों का करजा माफ कर दें या खाद – डीजल – बिजली सस्ता कर दें या समर्थन – मूल्य पर्याप्त बढ़ा दें. यदि कंपनियों का धन्धा नहीं चल रहा था, तो किसान की खेती में भी तो भारी घाटा हो रहा है! लेकिन किसानों को, गरीबों को या आम जनता को राहत देना अब सरकार के एजेंडे में नहीं है.


विदेशियों का हुक्म सिर आँखों पर
देशप्रेम के स्थान पर विदेश प्रेम तथा आम जनता के स्थान पर कंपनियों के हितों को बढ़ाना – यही भूमंडलीकरण की नई व्यवस्था का मर्म है. इस अंधे विदेश प्रेम ने हमारे मंत्रियों, अधिकारियों, विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की सोचने की शक्ति को भी कुंद कर दिया है. पिछले पन्द्रह वर्षों से उन्होंने मान लिया है कि देश का विकास विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों से ही होगा. विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए और खुश करने के लिए भारत की सरकारों ने पिछले पन्द्रह वर्षों में सारी नीतियाँ और नियम-कानून बदल डाले. पिछले पन्द्रह वर्षों में हमारी संसद तथा विधानसभाओं ने कानूनों में जितने संशोधन किए हैं और नए कानून बनाए हैं, उनकी जाँच की जाए तो पता लगेगा कि ज्यादातर परिवर्तन विदेशी कंपनियों के हित में तथा विदेशी कंपनियों के कहने पर किए गए हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, विश्व व्यापार संगठन, अमरीका सरकार या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कहने पर ये परिवर्तन किए जा रहे हैं. देश की जनता कोई मांग करती है तो सरकार को साँप सूँघ जाता है या या वह लाठी – गोली चलाने में संकोच नहीं करती है. लेकिन विदेशी कंपनियों की मांगें वह एक – एक करके पूरी करती जा रही है.गौरतलब है कि जिस विदेशी पूँजी को लाने और खुश करने के लिए नीतियों-कानूनों में ये सारे परिवर्तन किए जा रहे हैं और जिस पर ही सरकार की, योजना आयोग की, सारी आशाएं केन्द्रित हैं, वह विदेशी पूंजी अभी भी देश में बहुत मात्रा में नहीं आ रह है. उसकी मात्रा धीरे-धीरी बढ़ी है, लेकिन पिछले पांच वर्षों का भी औसत लें, तो भारत के कुल घरेलू पूंजी निर्माण में उसका हिस्सा ४-५ प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो पाया है. मात्र ४-५ प्रतिशत पूंजी के लिए हम अपनी सारी नीतिय्यँ कानून बदल रहे हैं और देश को विदेशियों के कहने पर चला रहे हैं, क्या यह उचित है? यह सवाल पूछने का समय आ गया है.
उड़न-छू विदेशी पूंजी
सीमित मात्रा में जो विदेशी पूंजी आ रही है, उसका भी कोई विशेष लाभ देश को नहीं मिल रहा है. विदेशी पूंजी निवेश को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है – पोर्टफोलियो निवेश और प्रत्यक्ष निवेश (FDI). विदेशी पूंजी का लगभग आधा हिस्सा पोर्टफोलियो निवेश के रूप में आ रहा है, अर्थात यह हमारे शेयर बाजार में शेयरों की खरीद-फरोख्त करने और Shares की सट्टेबाजी से कमाई करने आती है. अभी जब Sensex दस हजार से ऊपर पहुंचता है, वह इसी का कमाल है. इस प्रकार, यह पूंजी तो सही अर्थों में देश के अन्दर आती ही नहीं है. इससे देश में कोई नया रोजगार नहीं मिलता या नई आर्थिक उत्पादक गतिविधि चालू नहीं होती है. बल्कि, शेयर बाजार में आई यह विदेशी पूंजी बहुत चंचल और अस्थिर होती है. यह कभी भी वापस जा सकती है और पूरी अर्थव्यवस्था को संकट में डाल सकती है. इसे ‘उड़न-छू पूंजी‘ भी कहा जाता है. दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में कुछ वर्ष पहले जो संकट आया था, उसमें इसी विदेशी पूंजी के भागने तथा अल्पकालीन विदेशी ऋणों के प्रवाह के बंदे हो जाने का बड़ा योगदान था. इस संकट के पहले इंडोनेशिया, थाईलैण्ड, मलेशिया, फिलीप्पीन, दक्षिण कोरिया आदि देश विश्व बैंक की सफलता के प्रिय उदाहरन थे और इन्हें ‘एशियाई शेर ‘ कहा जाने लगा था. लेकिन विदेशी पूंजी के पलायन ने इन शेरों को अचानक गीदड़ों में बदल दिया. दूसरे देशों के अनुभव से भी हमारे शासक सीखते नहीं हैं, यह एक विडंबना है.
विदेशी कंपनियों का हड़पो अभियानदूसरे प्रकार की विदेशी पूंजी-प्रत्यक्ष विदेशी निवेश- वास्तव में देश के अन्दर आती है. इसे दो भागों में बांटा जा सकता है – (एक) विलय और अधिग्रहण (Merger & Acquisition) तथा (दो) हरित निवेश (Greenfield investment). भारत में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश का लगभग आधा हिस्सा तो दूसरी कंपनियों के विलय और अधिग्रहण में लग रहा है अर्थात विदेशी कंपनियां कोई नया कारखाना या नया करोबार शुरु करने के बजाय पहले से चली आ रही देशी कंपनी के कारोबार को खरीद लेती हैं. इससे भी देश में कोई नई उत्पादक गतिविधि नहीं शुरु होती है, रोजगार नहीं बढ़ता है, सिर्फ देश में पहले से चले आ रहे कारोबार के मालिक बदल जाते हैं और उसकी कमाई विदेश जाने लगती है. Parle कंपनी के शीतल पेय व्यवसाय को अमरीका की कोका कोला कंपनी द्वारा खरीदना, टाटा की टोमको कंपनी के साबुन ब्रान्डों तथा साबुन व्यवसाय को हिन्दुस्तान लीवर द्वारा खरीदना, फ्रांसीसी कंपनी लाफ़ार्ज द्वारा सीमेंट के अनेक कारखानों को खरीदना, इसके कुछ उदाहरण हैं. भारत के सरकारी उपक्रमों के शेयर खरीदकर उन पर अपना वर्चस्व कायम करने को भी इस श्रेणी में रखा जाएगा (जैसे मारुति कंपनी पर सुज़ुकी नामक जापानी कंपनी का कब्जा). पूरी दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा विलय और अधिग्रहण की प्रवृत्ति जोरशोर से चल रही है. इससे बाजारों में चन्द बड़ी कंपनियों का एकाधिकारी वर्चस्व कायम हो रहा है. भारत के विभिन्न वस्तुओं के कारोबार में भी विदेशी कंपनियों का कब्जा तेजी से हुआ है. उदारीकरण के इस दौर में विलय, अधिग्रहण अवं एकाधिकार पर पाबन्दियाँ हटाने के बाद यह संभव हुआ है. इसके लिए ‘एकाधिकार एवं प्रतिबन्धित व्यापार पद्धतियाँ अधिनियम (MRTP Act) को बदला गया है. इस प्रकार, विदेशी पूंजी के आने से प्रतिस्पर्धा का भी लाभ देश को नहीं मिला है, जिसका बहुत गुणगान किया जा रहा था. बल्कि कई क्षेत्रों में एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ मजबूत हुई हैं.
इस प्रकार जिस हरित निवेश से ही देश में उत्पादन, आय और रोजगार बढ़ने की कुछ उम्मीद की जा सकती है, वह देश में आ रही पूंजी का मात्र एक-चौथाई है. इसके बल पर भारत के शासक कैसे देश के विकास की उम्मीद कर रहे हैं, यह एक हैरानी का विषय है. इसे अंधविश्वास या अंधश्रद्धा ही कहा जा सकता है. महाराष्ट्र के प्रगतिशील समूहों ने अंधश्रद्धा निर्मूलन का काम काफी लगन से किया है. अब उन्हें भूमण्डलीकरण की इन अंधश्रद्धाओं के निर्मूलन का भी बीड़ा उठाना चाहिए.
पूरा देश विदेशी कंपनियों के हवाले
इसी प्रकार, निजीकरण की नीति पर भी भारत सरकार तथा हमारी राज्य सरकारें अंधे की तरह चल रही हैं. यूरोप के कई देशों में जितना निजीकरण नहीं हुआ, उससे ज्यादा ज्यादा निजीकरण भारत में हो चुका है. विदेशी कंपनियों के लिए जिस तरह से दरवाजे खोले गए हैं और पूरी छूट दे दी गई है, उस स्थिति में निजीकरण का मतलब विदेशीकरण ही है अर्थात देर-सबेर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व यहाँ कायम हो जाएगा. देश के उद्योग, खेती, खदानें, बैंक, बीमा, शेयर बाजार, बिजली, हवाई अड्डे, सड़कें, होटल, भवन निर्माण, मीडिया, शिक्षा, चिकित्सा, टेलीफोन, कानूनी सेवाएं, आडिट, पानी व्यवसाय – सबको विदेशियों के लिए खोला जा रहा है और उन्हे दावत दी जा रही है एक ईस्ट इण्डिया कंपनी के कारण भारत को २०० वर्षों की गुलामी और बरबादी झेलनी पड़ी थी. अब हजारों विदेशी कंपनियाँ देश में पैर जमा रही हैं, तब देश का भविष्य क्या होगा, इसकी चिन्ता सरकार में किसी को नहीं है. विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने का सरकार का सबसे ताजा पैकेज खुदरा व्यापार के क्षेत्र में है. यह एक प्रकार से भारत में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति में अंतिम शरणस्थली है. जब कोई और रोजगार नहीं मिला, तो माँ-बाप बेटे के लिए दुकान खोल देते हैं. लेकिन अब वहाँ भी विदेशी कंपनियों का हमला शुरु हो जाएगा.
जिसे विनिवेश (disinvestment) कहा जा रहा है, उसका भी औचित्य संदेहास्पद है. भारत सरकार हर बजट में सरकारी उद्यमों को बेचने के लक्ष्य रखती है और तेजी से उनको बेचती जा रही है. सरकार का यह काम वैसा ही है, जैसे कोई बिगड़ा हुआ, आवारा, कामचोर बेटा स्वयं कुछ कमाने के बजाय बाप-दादे की कमाइ हुई संपत्ति को बेचता जाए. भारत सरकार ठीक वही कर रही है. इससे बड़ी वित्तीय गैर जिम्मेदारी और क्या हो सकती है, क्योंकि यह संपदा एक न एक दिन तो खतम हो ही जाएगी? विश्व बैंक के निर्देश पर वित्तीय अनुशासन के लिए भारत सरकार ने ‘वित्तीय जिम्मेदारी एवं बजट प्रबंधन अधिनियम‘ तो पारित किया है, लेकिन उसमें इसे वितीय गैर-जिम्मेदारी नहीं माना गया है. उसका मतलब तो सिर्फ गरीबों और आम जनता की भलाई के लिए किए जाने वाले खर्चों में कटौती करते जाना है.
पहले सरकार ने कहा कि जिन सरकारी उपक्रमों में हानि हो रही है, उन्हें बेचा जाएगा. हानि क्यों हो रही है, उसे कैसे दूर किया जा सकता है, यह विचार तथा कोशिश करने की जरूरत सरकार ने नहीं समझी. कई मामलों में तो स्वयं सरकार या उच्च पदस्थ अफसरों के निर्णयों, नीतियों और लापरवाही के कारण ये हानियाँ हुईं और बढ़ीं. लेकिन अब तो हानि की बात एक तरफ रह गयी है. सरकार उन सरकारी उद्यमों को बेच रही है, जो मुनाफे में चल रहे हैं. इसका कारण भी स्पष्ट है - देशी-विदेशी कंपनियां उन उपक्रमों को आखिर क्यों खरीदेंगे, जो घाटे में चल रहे हैं ? इसलिए बजट के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अब लाभ वाले सरकारी उपक्रमों को बेचा जा रहा है. अब तो ‘नवरत्नों’ की बारी भी आ गयी है.

तिब्बत मसले पर सरदार पटेल का ऐतिहासिक पत्र

नई दिल्ली
7 नवंबर, 1950
मेरे प्रिय जवाहरलाल,
चीन सरकार ने हमें अपने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आंडबर में उलझाने का प्रयास किया है। मेरा यह मानना है कि वह हमारे राजदूत के मन में यह झूठ विश्वास कायम करने में सफल रहे कि चीन तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाना चाहता है। चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्र्वासघात जैसा ही है। दुखद बात यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्र्वास किया है, हम ही उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अब हम ही उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भाव के जाल से बचाने में असमर्थ हैं। ताजा प्राप्त सूचनाओं से ऐसा लग रहा है कि हम दलाई लामा को भी नहीं निकाल पाएंगे । यह असंभव ही है कि कोई भी संवेदनशील व्यक्ति तिब्बत में एंग्लो-अमेरिकन दुरभिसंधि से चीन के समक्ष उत्पन्न तथाकथित खतरे के बारे में विश्र्वास करेगा।


पिछले कई महीनों से रूसी गुट से परे हम ही केवल अकेले थे जिन्होंने चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलवाने की कोशिश की तथा फारमोसा के प्रश्न पर अमेरिका से कुछ न करने का आश्र्वासन भी लिया।

मुझे इसमें संदेह हैं कि चीन को अपनी सदिच्छाओं, मैत्रीपूर्ण उद्देश्यों और निष्कपट भावनाओं के बारे में बताने के लिए हम जितना कुछ कर चुके हैं, उसमें आगे भी कुछ किया जा सकता है। हमें भेजा गया उनका अंतिम टेलिग्राम घोर अशिष्टता का नमूना है। इसमें न केवल तिब्बत में चीनी सेनाओं के घुसने के प्रति हमारे विरोध को खारिज किया गया है बल्कि परोक्ष रूप से यह गंभीर संकेत भी किया गया है कि हम विदेशी प्रभाव में आकर यह रवैया अपना रहे हैं। उनके टेलिग्राम की भाषा साफ बताती है कि यह किसी दोस्त की नहीं बल्कि भावी शत्रु की भाषा हैं। इस सबके पटाक्षेप में हमें इस नई स्थिति को देखना और संभालना होगा जिसमें तिब्बत के गायब हो जाने के बाद जिसका हमें पता था चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। इतिहास में कभी भी हमें अपनी उत्तर-पूर्वी सीमा की चिंता नहीं हुई है। हिमालय श्रृंखला उत्तर से आने वाले किसी भी खतरे के प्रति एक अभेद्य अवरोध की भूमिका निभाती रही है। तिब्बत हमारे एक मित्र के रूप में था इसलिए हमें कभी समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र संधि कर उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का कारण बन सकते हैं।

चीन की कुदृष्टि हमारी तरफ वाले हिमालयी इलाकों तक सीमित नहीं है, वह असम के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा पर भी उसकी नजर है। बर्मा के साथ और भी समस्या है क्योकि उसकी सीमा को निर्धारित करने वाली कोई रेखा नहीं है जिसके आधार पर वह कोई समझौता कर सके। हमारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र आते हैं। संचार की दृष्टि से उधर हमारे साधन बड़े ही कमजोर व अपर्याप्त है; सो यह क्षेत्र 'कमजोर' है। उधर कोई स्थायी मोर्चे भी नहीं हैं
इसलिए घुसपैठ के अनेकों रास्ते हैं। मेरे विचार से अब ऐसी स्थिति आ गई है कि हमारे पास आतुमसंतुष्ट रहने या आगे-पीछे सोचने का समय नहीं है। हमारे मन में यह स्पष्ट धारणा होनी चाहिए कि हमें क्या प्राप्त करना है और किन साधनों से प्राप्त करना है।

इन खतरों के अलावा हमे गंभीर आंतरिक संकटों का भी सामना करना पड़ सकता है। मैने (एच०वी०आर०) आयंगर को पहले ही कह दिया है कि वह इन मामलों की गुप्तचर रिपोर्टों की एक प्रति विदेश मंत्रालय भेज दें। निश्चित रूप से सभी समस्याओं को बता पाना मेरे लिए थकाऊ और लगभग असंभव होगा। लेकिन नीचे मैं कुछ समस्याओं का उल्लेख कर रहा हू जिनका मेरे विचार में तत्काल समाधान करना होगा और जिन्हें दृष्टिगत रखते हुए ही हमें अपनी प्रशासनिक या सैन्य नीतियां बनानी होंगी तथा उन्हें लागू करने का उपाय करना होगा :
  1. सीमा व आंतरिक सुरक्षा दोनों मोर्चों पर भारत के समक्ष उत्पन्न चीनी खतरे का सैन्य व गुप्तचर मूल्यांकन। 
  2. हमारी सैन्य स्थिति का एक परीक्षण।
  3. रक्षा क्षेत्र की दीर्घकालिक आवशयकताओं पर विचार.
  4. हमारे सैन्य बलों के ताकत का एक मूल्यांकन.
  5. संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश का प्रश्न.
  6. उत्तरी व उत्तरी-पूर्वी सीमा को मजबूत करने के लिए हमें कौन से राजनीतिक व प्रशसनिक कदम उठाने होंगे?
  7. चीन की सीमा के करीब स्थित राज्यों जैसे यू०पी०, बिहार, बंगाल, व असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में आंतरिक सुरक्षा के उपाय.
  8. इन क्षेत्रों और सीमावर्ती चौकियों पर संचार, सड़क, रेल, वायु और बेहतर सुविधाओं में सुधार.
  9. ल्हासा में हमारे दूतावास और गयांगत्से व यातुंग में हमारी व्यापार चौकियों तथा उन सुरक्षा बलों का भविष्य जो हमने तिब्बत में व्यापार मार्गो की सुरक्षा के लिए तैनात कर रखी हैं. 
  10. मैकमोहन रेखा के संदर्भ में हमारी नीति.

आपका
वल्लभभाई पटेल
(www.visfot.com से साभार)

Saturday, October 27, 2012

क्या पैगम्बर मूसा,ईसा,आदम भारत में दफन है?

क्या वायविल और कुरआन में वर्णित “व्लेस लैंड” या “महफूज़ जगह” भारत में है?

क्या जीसस ने अपने जीवन के 18 वर्ष से अधिक भारत में व्ययतीत किये थे ?

क्या जीसस हेमिस मोनास्ट्री लद्दाख और कश्मीर में रहे थे?

क्या जीसस जीवन के अंतिम दिनों में पुन बापस भारत आये थे?

क्या पैगम्बर मूसा,ईसा,आदम,नुह,और सीश भारत में दफन है?

क्या पैगम्बर आदम स्वर्ग से धरती पर भारत में उतारे गए,और जीवन के अधिकाँश समय भारत में रहे,यहीं उनकी मृत्यु और अंतिम संस्कार हुआ,और उनकी कब्र भी भारत में है?

जीसस की 12 से 30 वर्ष की आयु अर्थात किशोरावस्था के 18 वर्षों का विवरण बायविल सहित किसी ईसाई धर्म ग्रन्थ में नहीं है.जीसस के भारत में रहने के विषय में सर्वप्रथम 1894 ई. में एक रुसी युद्ध संवाददाता निकोलस नातोविच “लद्दाख में हेमिस मोनास्ट्री ” के साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए दावा किया था.
लिंक देखें -
http://www.rickrichards.com/jc/Jesus1.html
http://www.sacred-texts.com/chr/uljc/index.htm
मोनास्ट्री के अभिलेखों में “ईसा (जीसस का अरेबिक रूपांतरण ईसा )का जीवन,सर्वोत्तम पुत्र ” के रूप में दर्ज है और स्वामी अभेदानंद ने 1922 में इस स्थान का भ्रमण करते हुए साक्ष्यों का अवलोकन किया,और जीसस के भारत सम्बन्धी पूर्व दावों की पुष्टि की. 1869 ई. में लुईस जेकोलियत ने श्री कृष्ण को जीसस क्रिस्ट बताते हुए,इस सम्बन्ध में साक्ष्य सहित “भारत में वायविल,या जीसस कृष्ण का जीवन” पुस्तक लिखी 1908 ई. में “आकाशिक रिकार्ड” लेवी एच. दाव्लिंग ने “जीसस के वायविल विवरण से गुम “खोये 18 वर्षों के जीवन” पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए दावा किया,कि जीसस इन वर्षों में भारत में रहते हुए ,भारत के अतिरिक्त तिब्बत,परसिया,असीरिया,ग्रीस और मिस्र भ्रमण को भी गए.

jesus indiajesus news
जीसस के भारत सन्दर्भ में समाचारपत्रों में प्रकाशित रिपोर्ट्स
rosebel shrinejesus real grave kashmir
कश्मीर में सूफी युसफ अल दरगाह,जिसे ईसा की कव्र बताया जाता है.
jesus route to india and chinajesus and moses india
जीसस के भारत आने और अन्य जगहों को जाने सम्बन्धी मार्ग नक्शा
jesus kashmirroza bal grave
दरगाह रोज़ा बल कश्मीर,जिसे जीसस से जोड़कर देखा जाता है.
map to gravenotovitch
दरगाह की स्थिति दर्शाते भौगोलिक मानचित्र
jesus kashmirhemis monastry laddaakh
हेमिस मोनास्ट्री लद्दाख,माना जाता है,जीसस ने १८ वर्ष यहाँ व्ययतीत किये.
wikipeadia notovitchswami abhayaanand<

क्या मोहनजोदड़ो सभ्यता एलियन ने नष्ट की थी?

ancient mohanjodaro
हड़प्पा सभ्यता में मोहनजोदड़ो एक रहस्यपूर्ण पुरातात्विक साक्ष्य अपने में समेटे हुए है,मोहनजोदड़ो अर्थात मृतकों का टीला…….ये नाम इसलिए पड़ा,क्योंकि इस स्थान पर बहुत से मानव कंकाल और अस्थियाँ प्राप्त हुई हैं.अब तक ये समझा जाता रहा था,कि मोहनजोदड़ो हड़प्पा काल में सभ्यता का एक कब्रस्तान रहा होगा…..और ये तथ्य काफी समय तक सही माना जाता रहा है. पर आधुनिक अनुसन्धान और साक्ष्यों के विश्लेषण कुछ और ही कहानी प्रकट कर रहे हैं.
mohanjo daro road and skeletons
मोहनजोदड़ों में उत्खनित अधिकाँश कंकाल अधिकतर घरों के बाहर मुख्य सड़कों पर बिखरे मिले हैं,और अधिकतर एक ही दिशा कि ओर अग्रसर हैं….ऐसा प्रतीत होता है कि तात्कालिक सभ्यता के लोगों ने अन्तरिक्ष में कोई वीभत्स और विस्मयकारी घटित होते देखा,
hadappa bull seal
जैसे कोई धुंद,धुंआ,दावानल अथवा कोई प्राकृतिक आपदा जो अन्तरिक्ष से उनकी ओर बढ़ रही हो . आसमान से शहर की ओर बढती इस आपदा से घबराकर लोग घरों से निकलकर सड़कों पर भागे होंगे,ताकि उस प्रकोप से बच सकें……पर संभवता सड़कों पर पहुँचते-पहुँचते एक प्रलयकारी विस्फोट नें सबको निगल लिया होगा. इस स्थान पर किसी भयंकर बाढ़,भूकंप,ज्वालामुखी विस्फोट,तड़ित अथवा भयंकर तूफ़ान आने के भी कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं.अर्थात वहां ये अकस्मात् विनाश की प्राकृतिक आपदा से घटित नहीं हुआ.
evidance
फिर इतने लोग एक साथ कैसे मरे,इसका उत्तर मिलता है,सड़कों के दोनों बनी दीवारों की कच्ची मिटटी की ईंटों में,जिस स्थान पर अधिकाँश नर कंकाल मिले हैं,उस सड़क के दोनों ओर की दीवारों में लगी कच्ची ईंटें पिघल गयी,और ईंटें केवल एक दिशा में ही पिघली हुई हैं.

भौतिकी के सिद्धांत के अनुसार सामान्यत: भयंकर से भयंकर आग (दावानल) भी इन ईंटों को इस प्रकार नहीं पिघला सकती. वैज्ञानिकों के अनुसार ईंटों का इस प्रकार पिघलना केवल परमाणु विस्फोट की घटना से संभव है. इस स्थान पर परमाणु विस्फोट का दूसरा साक्ष्य है,इस जगह की बड़ी हुई रेडियो धार्मिकता,अर्थात हवा में रेडियो धर्मी पदार्थों की सामान्य से अधिक मौजूदगी,हज़ारों साल पूर्व हुई घटना के स्थान पर आज भी रेडियो धार्मिकता का स्तर बड़ा हुआ है,जो पुष्टि करता है,यहाँ कभी भयंकर परमाणु विस्फोट हुआ अवश्य था.

Friday, February 24, 2012

चित्रकूट, रैगांव अमरपाटन में भाजपा बदलेगी अपनी सीट

जुगुलकिशोर बागरी
लगातार दूसरी पारी खेल रही मध्य प्रदेश भाजपा को 2013 में होने वाले विधानसभा चुनावों में भारी मशक्कत करना पड़ सकता है। 230 विधानसभा सीटों वाले मध्य प्रदेश में 155 सीटों पर भाजपा की हालत पतली ही दिख रही है। इसका कारण शिवराज सिंह चौहान का मूल रूप से नौकरशाहों पर निर्भर होना ही बताया जा रहा है। शिव के इशारों को नौकरशाह बखूबी समझ रहे हैं किन्तु सांसद विधायकों और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा शिवराज पर भारी पड़ने वाली है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करीबी सूत्रों का कहना है कि शिव का राज पांच
सुरेन्द्र सिंह चित्रकूट
लोग मिलकर चला रहे हैं। ‘‘मुख्यमंत्री जी की मंशा है‘‘ के जुमले को पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी के शासनकाल की तरह ही इस्तेमाल किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि सीएम द्वारा दिए गए निर्देशों को सिर्फ मुख्य सचिव को दिया जाता है। फिर सीएस द्वारा संभागायुक्तों को बुलाकर उन्हें मुख्यमंत्री की इच्छा से आवगत करा दिया जाता है। तीसरी कड़ी में संभागायुक्तों द्वारा जिला कलेक्टर्स को बुलाकर निर्देश दे दिए जाते हैं। अगर कोई कलेक्टर इस बारे में सवाल करता है कि अगर विधायक या सांसद ने कुछ हटकर चाहा तो? इस पर उन्हें कह दिया जाता है कि सीएम साहब की यही इच्छा है बस, बाकी सबको हाशिए पर डाल दिया जाए। संभवतः यही कारण है कि काडर बेस्ड भारतीय

रामखेलामन पटेल
जनता पार्टी का जनाधार दिनों दिन गिर रहा है। इसके साथ ही साथ प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों द्वारा रोजाना करोड़ों रूपए उगले जा रहे हैं। कार्यकर्ता इससे आज़िज आ चुके हैं। कहा जा रहा है कि सांसद और विधायक निधि में भी बंदरबांट जारी है। आलम यह है कि प्रदेश में अनेक सांसद विधायकों द्वारा समाचार पत्रों में विज्ञापन छपवाकर विज्ञापन के देयकों के भुगतान भी पत्रकारों से दो तीन नाम मांगकर उनके नाम पर किए जाने की शिकायतें अब आम हो गई हैं।
इन इलाकों में भाजपा की हालत खराब
दिमनी, अम्बाह, अटेर, मेहगांव, ग्वालियर पूर्व, सेवढ़ा, शिवपुरी, कोलारस, बामोरी, चंदेरी, जतारा, चंदला (अजा), बिजावर, पथरिया, दमोह, पवई, गुन्नौर (अजा), चित्रकूट, रैगांव (अजा), अमरपाटन, देवतालाब, मनगवां (अजा), सिहावल, कोतमा, पुष्पराजगढ़ (अजजा), निवास (अजजा), बैहर (अजजा), लखनादौर (अजजा), अमरवाड़ा (अजजा), सौंसर, परासिया (अजा), बैतूल, घोड़ाडोंगरी (अजजा), नरेला, भोपाल मध्य, नरसिंहगढ़, हाट पिपलिया, खातेगांव, पंधना (अजजा), नेपानगर (अजजा), अलीराजपुर (अजजा), मनावर, धार, इंदौर-5, राऊ, मंदसौर, मल्हारगढ़, जावद, बीना (अजा), सेमरिया, बडऩगर।

शिवराज हैटट्रिक करेंगे या नहीं

इस सवाल का जवाब ढूंढने में लगी खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश की 155 से ज्यादा सीटों पर भाजपा की हालत बहुत खराब है। जिन मुद्दों पर भाजपा 2003 में जीती थी, उन्हीं मुद्दों पर अंडरकरंट दिख रहा है। लोकसभा चुनावों के अप्रत्याशित परिणामों का असर भी इन सीटों पर दिखाई दे रहा है। अन्य राज्यों से लगी विधानसभा सीटों पर भी भाजपाविरोधी लहर साफ दिख रही है।
मध्यप्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव है। लेकिन 2003 में दिग्विजय सिंह को गद्दी से उतारकर भाजपा ने जिन मुद्दों पर सरकार बनाई थी, वह मुद्दे आज उसके खिलाफ जा रहे हैं। इसके बाद भी भाजपा फीलगुड में है। दूसरी ओर कांग्रेस में गुटबाजी हावी है। बावजूद इसके अंडरकरंट कांग्रेस के पक्ष में है। भोपाल से प्रकाशित पाक्षिक ‘बिच्छू डॉट कॉम‘ ने खुफिया एजेंसी के सर्वे का हवाला देकर कहा है कि कि 230 सीटों वाली मध्यप्रदेश विधानसभा की 155 सीटों पर भाजपा की हालत बेहद खराब है।
सरकार विरोधी अंडरकरंट बहुत तेज है। इसकी झलक प्रदेश 2009 के लोकसभा चुनावों में देख चुका है। सालों से संसद जा रहे भाजपा के धुरंधरों को उनकी परंपरागत सीटों पर ही ध्वस्त होते देखा था। 2013 के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सरकार ने एक खुफिया एजेंसी से सर्वे कराया है। इसमें सिर्फ वास्तविक राजनीतिक स्थिति का आकलन करने का काम सौंपा गया था। कई जिलों में 2003 में भाजपा ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ किया था। इनमें अधिकांश विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) वर्ग से थी। अब हालात बदल गए हैं। इन जिलों में कांतिलाल भूरिया के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने (केबी फेक्टर) और विधानसभा में विपक्ष की नेता रहीं जमुनादेवी के सुहानुभूति वोटों का असर दिखाई देगा। उत्तरप्रदेश के साथ ही महाराष्ट्र की सीमा से लगी सीटों पर दूसरे राज्यों की राजनीति का सीधा असर है।

फीलगुड कहीं शाइन कम न कर दें
2004 के लोकसभा चुनावों में फीलगुड और इंडिया शाइनिंग ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। इसके बाद भी मध्यप्रदेश सरकार इसी फार्मूले पर आगे बढ़ती दिखाई दे रही है। भाजपा के खिलाफ ग्वालियर-चंबल, विंध्य और बुंदेलखंड में जबरदस्त अंडरकरंट हैं। मालवा के कई आदिवासी क्षेत्रों में जहां भाजपा अपना जनाधार बढ़ाने के लिए तेजी से सक्रिय है वहां बेरोजगारी के चलते तेजी से पलायन हो रहा है। विंध्य में कुपोषण और भुखमरी के कारण लोगों में सरकार के प्रति आक्रोश है तो बुंदेलखंड में बेरोजगारी उसकी मुश्किल बढ़ा सकती है। चुनाव से पहले सड़कों को ठीक करने की सरकार की मंशा भी उसके लिए उल्टा-दांव पड़ सकती है। सड़कों की दुर्दशा से भाजपा के शहरी मतदाता भी उससे नाराज हैं। इन मतदाताओं की माने तो वे भी जानते हैं कि चुनाव से पहले सरकार इन सड़कों को ठीक कर एक बार फिर वोटर को ठगने का जतन करेगी। चुनाव के समय किसानों को भरपूर बिजली देने के लिए बिजली की खरीदी भी होगी, इसके बाद फिर पांच साल तक किसान खाद, बीज, पानी और सड़क के लिए तरसेगा। भाजपा के मंत्रियों का बड़बोलापन और प्रदेश में भ्रष्टाचार भी उसके लिए मुसीबत बन सकता है।

कांग्रेस को दूर करनी होगी गुटबाजी
कांग्रेस की हर बैठक में गुटबाजी के कारण झगड़े होते हैं। बड़े नेता कार्यक्रमों और बैठकों से किनारा कर रहे हैं। इससे कांग्रेस में कलह साफ दिख रही है। भोपाल में पिछले दिनों प्रदेश प्रभारी बीके हरिप्रसाद की मौजूदगी में हुई महत्वपूर्ण बैठक में वरिष्ठ कांग्रेस नेता नदारद थे। सभी सांसदों और विधायकों ने भी इसमें उपास्थिति दर्ज नहीं कराई। जेल भरो आंदोलन से भी बड़े और दिग्गज नेताओं ने दूरियां बना रखी है। बेटे को केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर करने के कारण पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुभाष यादव नाराज चल रहे हैं। पूर्व नेता प्रतिपक्ष स्वर्गीय जमुना देवी की गैरमौजूदगी में कांग्रेस के लिए आदिवासी वोट बैंक बरकरार रखने के लिए कड़ी मशक्कत करना पड़ेगी। भूरिया क्षेत्र से निकलकर पहली बार प्रदेश के आदिवासी नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं। पार्टी हाईकमान भी उन्हें आदिवासी नेता के रूप में प्रदेश में स्थापित कराना चाहता है, इसमें कितनी सफलता मिलती है यह अगले चुनाव में ही स्पष्ट होगा।


केबी फेक्टर दिखाएगा असर
झाबुआ, धार, बडवानी, खरगोन, खंडवा जैसे महाराष्ट्र-गुजरात से लगे जिलों में उमा भारती की लहर 2003 में दिखाई दी थी, वैसा असर 2008 के चुनावों में नहीं दिखी। ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि कांतिलाल भूरिया के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने का फायदा भी उनकी पार्टी को मिल सकता है। केबी फेक्टर का असर उन जिलों में देखने को मिल सकता है, जहां उनका अश्छा-खासा प्रभाव है। जमुनादेवी को लेकर सुहानुभूति भी इन सीटों पर दिखाई पड़ सकती है। आदिवासी सीटों पर वैसे ही भाजपा को जैसा समर्थन 2003 में मिला था, वैसा अब नहीं दिखाई दे रहा।

ग्वालियर-चंबल संभाग में सब दमदार
ग्वालियर-चंबल संभाग में भी उत्तरप्रदेश का फेक्टर काम करेगा। बसपा वहां जीती तो इन इलाकों के जिलों में भी अपना असर दिखा सकती है। इस क्षेत्र में फूलसिंह बरैया की पार्टी भी अच्छा-खासा जनाधार रखती है। बसपा से निकाले जाने पर भाजपा ने उन्हें अपनाया लेकिन उन्हें वहां पर्याप्त तवज्जो नहीं मिली। इसलिए उन्होंने पार्टी छोड़ दी। रीवा से मुरैना तक 31 सीटें ऐसी हैं, जहां बसपा ने दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है।

दिग्गी गुट का कब्जा
प्रदेश कांग्रेस कमेटी पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह गुट का कब्जा है। कांतिलाल भूरिया और दिग्विजय सिंह समर्थकों के कब्जे के कारण दूसरे गुट के नेता और पदाधिकारी वहां सिर्फ बैठकों में ही बुलाने पर हाजिर होते हैं वे भी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए।


कांग्रेस में कलह
कांग्रेस ने विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव और जेल भरो आंदोलन के जरिए अपने इरादे जाहिर स्पष्ट कर दिए हैं। लेकिन कांग्रेस की कथित एकता खंडित हो रही है। बड़े नेताओं की अरुचि की वजह से कार्यकर्ताओं में जोश नहीं है। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ओर प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया की जोड़ी प्रदेश सरकार की नींद उड़ाए हुए है। इस जोड़ी ने पिछले दो महीने में जो सक्रियता दिखाई और सरकार पर जोरदार हमले किए उससे कांग्रेस में नई जान आ गई है।

विंध्य क्षेत्र में बसपा का दबदबा
उत्तरप्रदेश चुनावों का सीधा असर विंध्य क्षेत्र के जिलों रीवा, सतना, सिंगरौली, त्योंथर में दिखाई देगा। यदि बसपा ने उत्तरप्रदेश में अच्छा प्रदर्शन किया तो वह यहां भी पैर पसार सकती है। इस इलाके में अर्जुन सिंह को हराने वाले समानता दल के प्रदेश प्रमुख का भी दबदबा है। महाराष्ट्र की सीमा से लगे छिंदवाड़ा व आसपास के जिलों में एनसीपी का प्रभाव है। यहां यह पार्टियां भले ही सीटें जीत न पाए, लेकिन बड़ी संख्या में वोट काटने में कामयाब जरूर रहेंगी।

इनकी नहीं हो रही पूछ परख
सुभाष यादव, श्रीनिवास तिवारी, इंद्रजीत पटेल, मुकेश नायक, गुफरान ए आजम, अजीज कुरैशी, सुरेश पचौरी, शोभा ओझा, बालकवि बैरागी, किसन पंत

इन मुद्दों पर है अंडरकरंट
खाद संकट, बिजली, पाला , कुपोषण, सड़क, पानी, घोषणाएं ज्यादा, काम कम