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Monday, July 21, 2008

इस(डील की) लड़ाई में सहभागी बने

मामला दरअसल सरकार ही नहीं विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का है. परमाणु डील से शुरू हुई लड़ाई अब राजनीतिक स्वार्थ का रूप ले चुकी है. जो जहां अवसर पा रहा है वहीं बिक रहा है. जिसे अवसर मिल रहा है वह खरीद रहा है. खरीदने और बिकने वाले कोई और नहीं लोकतंत्र के वे नुमाइंदे हैं जो हमारी ही गलती से वहां तक पहुंचे हैं जहां पहुंचने का मेरी नजर में कोई हकदार नहीं है. न तो इन्हे लोकतंत्र की मर्यादा का ज्ञान है न ही उन्हें उस मुद्दे की ही जानकारी है जिस पर लड़ाई हो रही है.
परमाणु करार से यह नुकसान है ... इस करार से यह फायदा है... दिनभर इसका राग तो वे अलाप रहे हैं लेकिन उन्हें यही जानकारी नहीं है कि परमाणु करार है क्या?
इनसे हालांकि उम्मीद ही नहीं करनी चाहिए लेकिन इनकी हरकते देख कर तो मैं शर्मशार हो ही रहा हूं कि इनके दम पर हम भविष्य में भारत को महाशक्ति का दर्जा दिलाने का स्वप्न देख रहे हैं. इनसे बेहतर तो सड़ी लाशों में बिलबिलाने वाले वे कीड़े हैं जिन्हे यह जानकारी होती है कि कौन सी लाश सड़ी है और कौन नहीं. लेकिन हमारे ने नेता तो यह भी नहीं जानते कि कौन से और किस मामले में उन्हें बिलबिलाना है. हत्यारे और अपराधी देश की दिशा तय कर रहे हैं. अनपढ़ों की फौज हाइड एक्ट पर रटारटाया बयान दे रही हैं...
इन्हें टीवी स्क्रीन पर देख कर व अखबारों में पढ़कर तो इनके बारे में घिन आ रही है. एक चैनल का वह प्रश्न जिसमें सांसदों से यह पूछा गया कि एटमी डील क्या है? उनके जवाब सुनकर शायद बुद्धिजीवी तो कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं है.


इसलिये सभी से निवेदन है इस मुद्दे पर कुछ न कुछ तो टिप्पणी लिखें. जरूर यह आवाज ज्यादा दूर तक नहीं जाएगी लेकिन जहां भी जाएगी अपनी धमक तो सुना कर ही रहेगी.

6 comments:

अनूप शुक्ल said...

जनप्रतिनिधि हैं भाई ये!

Udan Tashtari said...

हमारे चुने ही है यह...क्या कहें. हमने ही तो अधिकर दिया है.

Gyan Dutt Pandey said...

प्रतीक्षा और टिप्पणी करने के सिवाय हमारे पास चारा ही क्या है?
कठिन है इस चक्रवात को प्रभावित करना।

Anonymous said...

कुछ दिनों पहले एक पोस्ट पढ़ी थी, जिसमें ननी पालखीवाला के लोकतंत्र के बारे में चिंतन को जगह दी गई थी. उनमें से एक विचार यह था की भारत जैसे पिछडे देश में शुरुआत में केवल पढ़े लिखे लोगों को मताधिकार दिया जाए, और बाद लोकतंत्र के परिपक्व हो जाने पर यह अधिकार जनसँख्या के निचले वर्गों तक पहुँचाया जाए.

इस विचार की पालखीवाला के जीवन काल में भी घोर आलोचना हुई थी, उपरोक्त पोस्ट पर आई टिप्पणियों में भी आलोचना का स्वर था (कुछ ने यहाँ भी अपने कमेन्ट दिए हैं).

पर अगर लोकतंत्र पढ़े लिखों के हाथो में रहता तो, क्या आज हमारी संसद की इतनी बुरी गत होती??? क्या आज भी पढ़े-लिखों पर अनपढ़-गंवार और अपराधी राज कर रहे होते??? क्या लोग तब भी घोटालेबाजों को जात के नाम पर अपना प्रतिनिधि बनाते??? क्या आज़ादी के साठ वर्षों बाद भी नेता इस बात से डरते की अगर सब पढ़े-लिखे हो गए तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा??? भूटान ने भारत की आदर्शवादी भूलों से सबक लेकर सिर्फ़ पढ़े लिखों को ही जनप्रतिनिधि बनने का अधिकार दिया है, वहां कोई ऐरा-गैरा या अपराधी चुनाव लड़ने की नही सोच सकता.

अगर हम 'नेहरूवादी रोमेंटिक' न होकर यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़े रहते तो शायद आज................................

बलबिन्दर said...

हमने ही तो इन्हें तात्कालिक कारणों/ मुद्दों पर चुना था। अब ये देश को ही चुनवा दे रहे हैं।

संजय बेंगाणी said...

एक मतदाता के रूप में शर्मसार है. हद से ज्यादा पार्टीयाँ और एक एक सासंद का महत्त्व, सत्यानाश कर रहा है. ऐसे में अमरीकी व्यवस्था ज्यादा प्रभावी लगती है.