अब बात करते हैं अपनी भाषा और उसके सशक्तिकरण की. हम हमेशा यही राग अलापते हैं कि हिन्दी को मजबूत करने के कोई प्रयास नहीं किये जा रहे तो मेरे एक मित्र सदैव यह उदाहरण देते हैं कि विदेशों में उन देशों की भाषा ही सर्वमान्य भाषा है वहां चपरासी से लेकर अधिकारी तक सभी एक ही भाषा में काम करते हैं. वहां पढ़ाई भी एक ही भाषा में होती है लेकिन भारत में ऐसा नहीं फिर इस पर लंबी बहस होती है और बात बेनतीजा हो कर अधूरी रह जाती है. काफी सोचने के बाद मेरा मानना है कि जब तक हम विकसित देश नहीं हो जाते तब तक हिन्दी पूरे देश की भाषा नहीं बन सकती चाहे इसके लिये हम कितने भी प्रयास कर लें या फिर कितने भी आयोजन कर लें.
अब हम बात करते हैं कि भारत की पूरी शिक्षा हिन्दी में क्यों नहीं होती तो मेरा मानना है कि चलिये हम पूरी शिक्षा हिन्दी में कर भी लेते हैं सारी किताबे हिन्दी में तैयार भी हो जाती हैं तकनीकी, चिकित्सा सहित सारी पढ़ाई हिन्दी में शुरू हो जाती है तो हासिल क्या होगा... इन परिस्थितियों में जो भी पेशेवर तैयार होंगे वे बेहतर हिन्दी तो जानेगें लेकिन उन्हे हम कितना रोजगार दे पाएंगे... क्या हमारे यहां इतनी व्यवस्थाएं हैं कि उन्हें हम अपने यहां खपा सकें... शायद नहीं. फिर ये बेहतर हिन्दी भाषी क्या बाहर रोजगार पा सकेंगे...
दूसरा क्या हमारे यहां इतने संसाधन हैं कि नित नई खोज अपने यहां अपनी भाषा में कर सकें... निश्चित तौर पर नहीं फिर हम हिन्दी भाषी अपने अल्पसंसाधनों व हिन्दी भाषा ज्ञान के माध्यम से बाहरी प्रणालियों से समन्वय बना सकेंगे... शायद नहीं
लोग कहते हैं विदेशों में जाने वाले लोगों को वहां की भाषा सीखनी पड़ती है तो भारत आने वाले क्यों नहीं सीखते हिन्दी... तो महाशय हम अभी विकास की उस प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जहां लोग अभी आना शुरू किये हैं. यदि हम उन्हें अभी नहीं समझ पाएंगे या उन्हें नहीं समझा पाएंगे तो वे दूसरी ओर जाना शुरू कर देंगे... फिर हम उनपर हिन्दी लाद कर क्या हिन्दी का विकास कर सकेंगे...
आज हम गरीबी के साथ जीने वाले तथा कम रोजगार के अवसरों से घिरे देश में रह रहे हैं यदि हमने हिन्दी की चादर ओढ़ ली तो क्या हम रोजगार के बेहतर अवसर बाहर पा सकेंगे... शायद नहीं...
ऐसे कई मामले हैं जहां पूर्ण हिन्दी अपना लेने से हम नुकसान में रहेंगे. हां लेकिन जब हम विकसित राष्ट्र हो जाएंगे तथा हमारे मानव संसाधन पूर्ण संसाधन में बदल जाएंगे तो फिर हमें दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा. उस समय हम हिन्दी को लोगों की मजबूरी बना सकेंगे. तब हमारे पास मानव संसाधन को खपाने के पर्याप्त संसाधन होंने और उसका माध्यम होगी हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी...
इसलिये यदि हिन्दी को राष्ट्र भाषा तथा सर्वमान्य भाषा बनाना है तो हिन्दी के विकास के दिखावटी प्रयास बंद कर देश को विकसित राष्ट्र बनाने में जुटें. विकसित होते ही हिन्दी अपने आप राष्ट्र भाषा बन जाएगी.
2 comments:
आपके सोच की गहराई देखकर आश्चर्य हो रहा है!!
सीधे मुद्दे पर आते हैं। क्या आपको पता है कि चीन के कितने लोग विदेशों में काम करते हैं?
आप संख्यात्मक बात क्यों नहीं करते? भारत के कितने प्रतिशत लोगों को भारत के बाहर नौकरी करनी है? (या अधिकतम कितने प्रतिशत को बाहर नौकरी मिल सकती है?) क्या भारत का निर्माण दुनिया के लिये 'मैनपावर' (सीधी भाषा में, मजदूर) तैयार करने के लिये किया गया है? क्या यही हमारी शिक्षा का उद्देश्य है? यदि देश के केवल ०.१ प्रतिशत लोगों को ही अंग्रेजी पढ़ाने से देश का काम चल सकता है तो उसे शत-प्रतिशत पर लादना कहाँ की समझदारी है?
आपने कैसे निष्कर्ष निकाल लिया कि उन्नत अनुसंधान हिन्दी (अपनी भाषा में) नहीं हो सकता है? अनुसंधान और रचनात्मकता कल्पना शक्ति की उपज है। इसका भाषा से कोई लेना देना नहीं है। अधिक या कम शिक्षा से भी इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।
'सृष्ठि' नामक एक गैर-सरकारी संस्था भारत के ग्रामीणॉं, अशिक्षितों, वनवासियों के बीच काम करती है और उनके द्वारा खोजे गये नये-नये विचारों (आइडियाज) एवं उत्पादों का पेटेन्ट कराती है। इस समय सृष्टि के पास कोई तीन सौ पेटेन्ट हैं। अपने देश के बड़े से बड़े अनुसंधान संस्थान के पास इसके आधा का आधा पेटेन्ट भी नहीं होंगे।
आप जो सबसे बड़ी चीज भूल रहे हैं वह यह कि अपनी भाषा में शिक्षा से लोगों में मौलिकता आती है और मौलिकता ही नवाचार (इन्नोवेशन) के लिये जिम्मेदार है, न कि रटी-रटायी विद्या। रटी-रटायी विद्या 'नौकर' बनाने के लिये सबसे उपयुक्त है। याद कीजिये कि मैकाले ने क्या कहा था। कहीं उसकी बिछायी हुई माया अपने उद्देश्य में सफ़ल तो नहीं हो रही है?
रमा शँकर जी
जब तक हमारा राष्ट्र पूर्ण उन्न्त होगा तब तक हिन्दी का नामो निशान समाप्त हो चुका होगा और इसकी कोई ज़रूरत नहीं रह जायेगी। भविष्य की पीढ़ियों का काम अंग्रेज़ी से चलेगा, वो काहे सीखेंगे हिन्दी? डॉक्टर अगर हिन्दी में पढ़ेगा तो जिन लोगों (मरीज़ों) से उसका व्यवसायिक जीवन में पाला पड़ने वाला है, उनसे सहजता से बात कर सकेगा। इंजीनियर अगर अपनी भाषा में पढ़ेगा तो अपनी कल्पना शक्ति का अधिक प्रयोग कर सकता है और अधिक रचनात्मक काम कर सकता है। वकील अगर अपनी भाषा में पढ़ेगा तो उसकी केस लड़ने की क्षमता खुद ब खुद बढ़ेगी। मार्किटिंग मैनेजर अगर अपनी भाषा में पढ़ेगा तो अपने लोगों में उत्पाद बेचने का काम अधिक क्षमता से कर सकता है, अधिक अच्छे विज्ञापन बना सकता है, आदि आदि।
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